पशेमाँ
क्यों मैं अपने ही शहर गलियों में तन्हा सा होकर रह गया हूं ?
क्यों मैं अपने ही शहर में अजनबी सा बनकर रह गया हूं ?
क्यों मैं एक अजीब सा खौफ़ महसूस करने
लगा हूं ?
क्यों मैं जाने अनजाने हर शख़्स पर शक़ करने लगा हूं ?
क्यों दिलों दिमाग पर ये नफ़रत पोश़ीदा है ?
जो इंसान को इंसान से अलग करने पर आम़ादा है।
क्यों फ़िरकाप़रस्ती का ज़हर म़ाहौल पर ताऱी है ?
क्यों मजलूमों की मजबूरी पर सिय़ासत जारी है ?
क्यों इस ब़ेबसी के आलम में अपनी रोटियां सेंकने की कोशिश करते ख़ुदगर्ज़ सिय़ासतदाँ खड़े हैं ?
क्यों व़तनप़रस्ती ग़ुम है और व़तन का सौदा करने वाले कमज़र्फ़ों के हौसले बढ़े है ?
सच ही कहा है जब कय़ामत के दिन आते हैं।
तब लोग अपनी ख़ुदी को भूलकर दिलो-दिम़ाग से ब़हक जाते हैं।