पशुता
कभी कभी तो लगता है सब कुछ खाली सा,
तो कभी यूँ जैसे भरा हुआ है गले तक
क्या लेकिन??
गुस्सा, प्यार ,
थोड़ा अहसास मेरे मनुष्य होने का
सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ होने का,
लेकिन कभी लगता है दबी है पशुता भी कहीं भीतर मेरे,
जिसे छुपाता हूँ मैं सबसे,
पर यह उभर उभर कर आती है गले तक ,
शैतान छिपा है हर सुंदर चेहरे के पीछे ,
आता है यह नज़र वक्त बेवक्त
जब नहीं होता कुछ मर्जी का,
जब दबता है यह बेबसियों के नीचे,
जब अपमान का घूंट पिया जाता है ,
जब वो सहना पड़े जो नहीं है सहनशील ,
आवेश मारता है आवेग ,
दबी भावनाएं बनती है आक्रोश,
वही आक्रोश पशुता का रूप बनता है ,
जो दबी है सभी के अंतर्मन में ,
थोड़ी पशुता यकीनन थोड़ी पशुता ,
करे कोई लाख इंकार ,
या छुपाये बार बार ,
सब में है थोड़ी पशुता यकीनन थोड़ी पशुता !!