पवित्र साध्य है बेटी
पवित्र साध्य है बेटी
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आन कहूँ या शान कहूँ ! मान कहूँ या मर्यादा ! खुशियों की चाबी कहूँ या हिस्सा कहूँ मैं आधा |
हाँ ! सब कुछ तो है बेटी | आन भी है ,शान भी है ,जान भी है और मान भी है | बेटी की कोई सीमित परिभाषा या कोई निश्चित पर्याय नहीं है | बेटी घर में एक कल्पवृक्ष की तरह है ,जो घर के आँगन में सदैव फलदायी बनकर पनपती है और अपनी मोहक और मासूम मुस्कान के साथ ही अनन्त , असीम और अनन्य खुशियों से सदन के प्रत्येक सदस्य का दामन भर देती है | घर में उसकी प्रत्यक्ष उपस्थिति ही स्वर्ग का आभाष करवाती है , क्यों कि बेटी विधाता की अतुल्य ,अद्भुत , अद्वितीय , अप्रतिम और आंतरिक शक्तियों से लबरेज वह सुन्दरतम रचना है ,जिसके आगे स्वयं विधाता भी नतमस्तक होता है | इसके अन्तस् में विद्यमान भावनात्मक एवं रचनात्मक प्रबलता और विशुद्ध चैतन्य की उपस्थिति इसके आंतरिक और बाह्य स्वरूप में चार चाँद लगा देते हैं | इसकी भोली और मासूम सूरत और विलक्षण एवं अतुलनीय सीरत दोनों एकाकार होकर इसके सरल , सहज ,नम्र और अनिर्वचनीय स्वरूप को प्रकट करते हैं | बेटी का यही विलक्षण चैतन्य स्वरूप प्रकृत्ति एवं संस्कृति की अनमोल धरोहर के रूप में स्वयं प्रकृत्ति- स्वरूप बनकर उभरता है , जो कालान्तर में वैश्विक सृजना बनकर “विश्व-विधाता” एवं “जीवन-दाता” स्वरूप में प्रकट होती है | बेटी को यदि “जीवन-देवता” भी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी | लेकिन बेटी के इस यथार्थ एवं असंदिग्ध स्वरूप को जानने के लिए “पवित्र सोच एवं साधन” की दरकार है | क्यों कि यह सर्वविदित है कि किसी भी “पवित्र साध्य” की प्राप्ति या उसे जानने के लिए सदैव “पवित्र-साधन” का होना अत्यावश्यक है |
परन्तु अफ़सोस ! कि सदियों से मानव जीवन को सार्थक करके उसे महकाने वाली पुण्यात्मा बेटी के साथ सदैव ही अन्याय हुआ है | वह पग-पग पर छली गई है ! सोचनीय बात यह है कि उसके साथ छल करने वाला कोई दूसरा नहीं , स्वयं अपने ही होते हैं | कभी स्वयं की जननी उसे मंदिर की सीढ़ियों पर छोड़ देती है तो कभी बोरे में बंद करके दम घुटने के लिए तड़पता छोड़ देती है | कभी सरोवर के ठंडे पानी में बेजान तैरने पर मजबूर करती है तो कभी कंटीली झाड़ियों के कांटों को उसका पालना बना देती है | यही नहीं , कभी दादा-दादी , नाना-नानी , पिता ,चाचा और मामा भी अपनी मानवीय हदें पार करते हुए मासूम सी प्यारी बेटी को गर्भ के भीतर ही परलोक-गमन की टिकट प्रदान कर देते हैं | यदि बाह्य दुनियां में आँखें खोल भी लेती है तो रही-सही कसर वो तब पूरा कर लेते है ,जब उसे श्वानों के बीच किसी कचरे के डिब्बे में डाल देते हैं |
आखिर क्या है ये ? और क्यों है ये ? क्या बेटी बोझ है ? क्यों उसे इस तरह की अमानवीय पीड़ादायक अग्निपरीक्षा देकर जीवन जीने का सर्टिफिकेट प्राप्त करना होता है | बहुत हो चुका है अब ! अब ओर नहीं ? कब तक हम फूल जैसी बेटियों के साथ अमानवीय अत्याचार करते रहेंगे | आज आह्वान करता हूँ , मैं समाज के उन ठेकेदारों का , कि वे आगे आएं और समझें कि बेटी बोझ नहीं है | बेटी तो जल है , बेटी तो कल है , बेटी तो फल है | बेटियों के बिना ये सम्पूर्ण जीवन विकल है | आज हमें अपनी रूढ़िवादी मान्यताओं ,सोच और संकुचित मानसिकता को त्यागकर बेटियों को अपनाना होगा | तभी सृष्टि भी नवनिर्माण में हमारा साथ देगी ,अन्यथा सृष्टि विनाश तो सुनिश्चित ही है |
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– डॉ० प्रदीप कुमार दीप