पवित्रता की प्रतिमूर्ति : सैनिक शिवराज बहादुर सक्सेना*
पवित्रता की प्रतिमूर्ति : सैनिक शिवराज बहादुर सक्सेना
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लेखक: रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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बचपन से ही सैनिक की एक ही छवि हमारे मस्तिष्क पर अंकित थी। युद्ध में दुश्मन से बन्दूक हाथ में लेकर लड़ता हुआ व्यक्ति सैनिक होता है। वह जो तलवार हाथ में लेकर युद्ध करता है, वही सैनिक होता है। पर, वह छवि अपूर्ण थी ,इसका आभास श्री शिवराज बहादुर सक्सेना से मिलकर हुआ। युद्ध के मोर्चे पर उन्होंने बन्दूक हाथ में नहीं ली। कोई बम का गोला नहीं फेंका। उनके हाथों में तलवार नहीं थी। किन्तु निस्सन्देह वह सैनिक थे और दुशमन से अपनी जान पर खेलकर युद्ध कर रहे थे।
भारतीय वायु सेवा में एक इन्जीनियर के रूप में सेना के तकनीकी पक्ष को सुदढ़ करना और मस्तिष्क का उपयोग करते हुए सेना के उपयोग में आने वाली मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त बनाना और बनाए रखना श्री शिवराज जी का दायित्व था। उनसे वार्तालाप करके लगा कि युद्ध अब केवल बाहुबल से नहीं लड़े जाते बल्कि बुद्ध-बल से प्रमुखता से लड़े जा सकते हैं। बुद्धि के साथ-साथ देशभक्ति की समर्पित भावना का मिश्रण किसी व्यक्ति को किस हद तक एक पूर्ण सैनिक का दर्जा दे सकता है ,इसका साक्षात दर्शन श्री शिवराज बहादुर सक्सैना को देखकर किया जा सकता है।
तीन सितम्बर 1999 की शाम को श्री शिवराज जी के नवनिर्मित निवास “खाटू धाम “जो कि रामपुर में कृष्णा विहार कालोनी में स्थित है, में श्री शिवराज जी से उनके सैनिक जीवन के विषय में काफी विस्तार से बातचीत करने का अवसर मिला। सेना के विषय में जानना, एक सैनिक के रूप में शिवराज जी की गतिविधियों को जानना और विशेषकर दुश्मन के साथ संघर्ष करते हुए उनकी जोखिम भरी जिन्दगी के भीतर झाँक कर देखना वास्तव में गंगा के पवित्र जल में स्नान करने के समान था।
सौभाग्य से जब इन पंक्तियों का लेखक श्री शिवराज जी से मुलाकात करने उनके निवास पर पहुंचा, तो वह पंजाब नगर स्थित शिव मंदिर में श्री कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव में गए हुए थे। श्याम देवता के तो शिवराज जी भक्त हैं ही, उनके मकान का नामकरण “खाटू धाम” इसका परिचय खुद दे रहा था। खैर, शिवराज जी को आने में देर थी। यह सौभाग्य इसलिए सिद्ध हुआ कि इस बहाने उनकी धर्मपत्नी जी से शिवराज जी के त्यागपूर्ण जीवन के सम्बन्ध में कुछ अनौपचारिक वार्ता सम्भव हो सकी।
“इन्हें कुछ नहीं चाहिए। किसी चीज की चाह नहीं है। अपनी सादगी में मगन रहते हैं। अगर घर पर चाय के कप पुराने हैं या मामूली हैं तो यह उसी में संतुष्ट रहते हैं। अपने बारे में सोचने की चिन्ता से पूरी तरह से मुक्त हैं।”- श्रीमती शिवराज जी चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान बिखेरती हुई कह देती हैं।
“अभी कारगिल में लड़ाई छिड़ी तो इन्हें फिर फौज में जाने का जोश भर आया। कहने लगे कि मैं भी लड़ाई में फिर से जाउँगा। मैंने समझाया कि आपको दस साल हो गए फौज छोड़े हुए, अब आप लड़ाई की मत सोचिए। मगर देश के लिए इनकी भावनाएँ अभी भी वहीं की वहीं है।” -श्रीमती शिवराज जी ने कहा।
“आपने फौज का जीवन भी जिया और एक नागरिक का जीवन भी जी रहीं हैं, क्या फर्क लगता है ?” -हमने पूछ ही लिया।
उत्तर मिला खिलखिलाहट से भरी हुई इसी के साथ- “हमें तो कोई फर्क नहीं लगता। इनके साथ रहकर फौज की सादगी हमने भी जीवन में अपना ली है। अब यह गाउन देखिए, जो मैं पहने हुए हूँ, साधारण लग सकता है” वह गाउन की ओर इशारा करते हुए कहती हैं -“किन्तु इसकी सादगी में ही मुझे गर्व भी होता है और संतोष भी होता है। एक बात है कि जितना समय यह एयर फोर्स में काम करते रहे, हमें लगता था कि हम देश के लिए जीवन जी रहे हैं। आज कुछ खालीपन-सा लगता है। महसूस होता है कि अब हम केवल अपने लिए जीवन जी रहे हैं। उन दिनों में बड़ी त्याग-तपस्या की जिन्दगी रहती थी।”-फिर कुछ सोचकर उनकी आँखें बुझ-सी गयीं। चेहरे पर दर्द का भाव गहराने लगा।
“मुझे फौजिया की विधवाओं का जब भी ख्याल आता है, मन को बड़ा कष्ट होता है। मैं क्योंकि फौज की विधवाओं के सम्पर्क में आई हूँ। मैने उनका दुख-दर्द करीब से देखा है. इसलिए यह बात कह रही हूँ। विधवाओं की बड़ी बुरी दशा होती है । ” वह कह रही थीं और हम उन्हें उनके मन में छिपे दर्द के साथ पढ़ते जा रहे थे।
“युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की विधवाओं को जो धनराशि मिलती है, मैं उसकी बात नहीं कर रही। मेरा इशारा तो उन महिलाओं की तरफ है ,जिनके पति बिना युद्ध लड़े मारे जाते हैं। किसी एक्सीडेन्ट में या अन्य किसी कारणवश मर जाते हैं। उनकी विधवाओं की तरफ किसका ध्यान जाता है ? उनकी विधवाओं को फौज में प्याऊ पर नौकरी मिलती है।” श्रीमती शिवराज जी संस्मरण सुनाती हैं कि फौज में रहने के दौरान उनके पड़ोस की किसी महिला के विधवा होने पर जब उसके सामने फौज में प्याऊ पर नौकरी मिलने का प्रस्ताव आया, तो उन्होंने उस विधवा की प्रतिभा और योग्यता को समझते हुए उसे ऐसी नौकरी का प्रस्ताव स्वीकार नहीं करने का सुझाव दिया और कहा कि वह सिलाई का प्रशिक्षण प्राप्त करके कपड़ों की सिलाई का काम करे। उनके सुझाव का परिणाम यह हुआ कि वह महिला रेडिमेड वस्त्रों के उत्पादन का बहुत बड़ा कार्य सम्पादित करते हुए अपने पैरों पर खड़ी होने में समर्थ हो गई।
बहरहाल श्री शिवराज बहादुर सक्सेना जी से वार्ता के क्षण उपस्थित हुए। “मैंने वारन्ट ऑफीसर के पद से भारतीय वायु सेना से अवकाश ग्रहण किया है।” उनका इतना कहना था कि हम चकरा गए। “यह वारन्ट ऑफीसर में वारन्ट शब्द का क्या अर्थ है ?” -हमने पूछा।
“अर्थ तो मुझे भी नहीं पता। बस यह वायु सेना में प्रचलित पद है। वारन्ट ऑफीसर से नीचे के पद जूनियर वारन्ट ऑफीसर, तथा सार्जेन्ट के होते हैं।” शिवराज जी ने कहा।
“क्या यह सच है कि आप कारगिल में युद्ध के मैदान में जाने के लिए तत्पर थे ? अब तो आप सैनिक नहीं हैं ?” -हमने कहा।
“सैनिक का हृदय हमेशा सैनिक का ही रहता है। वह कभी भूतपूर्व नहीं होता। देश की सेवा का अवसर मुझे मिले, तो आज भी मैं तैयार हूँ। यह मेरा खुला हुआ ऑफर है।”- शिवराज जी ने कहा, तो हमने उन्हें बातचीत के लिए कुछ और कुदेरते हुए पूछा “क्या आप हमें युद्ध के कुछ संस्मरण सुनाएँगे ? किन लड़ाइओं में आपने भाग लिया है, उनमें क्या खतरे थे, वहाँ आप पर क्या-क्या बीती ?”
हमारे उपरोक्त प्रश्नों के साथ ही श्री शिवराज बहादुर सक्सेना की जीवन यात्रा एक खुली किताब की तरह हमारे सामने आ गई। सन् उन्नीस सौ इक्सठ में लखनऊ में अध्ययन के दौरान ही भारतीय वायु सेना में उन्होंने प्रवेश लिया। उन्हें ट्रेनिंग के लिए बंगलौर भेजा गया। ट्रेनिंग के उपरान्त उन्नीस सौ बासठ में वह कलकत्ता में वायु सेना की सेवा में लग गए। उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध तथा 1965 तथा 1971 के भारत – पाकिस्तान युद्ध में सीमा पर खतरनाक मोर्चाों पर देश की सेवा की है। वह वायुसेना के काम काज से सम्बन्धित अत्याधुनिक उपकरणों तथा तकनीकी ज्ञान से सम्बद्ध विभागों में कार्यरत थे। वह एक असिस्टेंट इन्जीनियर तथा मैकेनिक थे। वह वायरलेस तथा तकनीकी ज्ञान से सम्बद्ध विभागों में कार्यरत थे। वह वायरलैस आपरेटर थे। उनकी रेडियो कम्यूनिकेशन में रूचि थी। उनका मुख्य कार्य “एयर ट्रैफिक कन्ट्रोल” था।
1962 में शिवराज जी की महत्वपूर्ण ड्यूटी आब्जर्वेशन-पोस्ट पर लगाई गई। असम में बह्मपुत्र नदी के तट पर तेजपुर जिले में उन्होंने चीन के विरूद्ध मोर्चा संभाला और पर्वतों के दूसरी ओर चीन से आने वाले हवाई जहाजों की दिशा, ऊँचाई, गति आदि गतिविधियों की सूचना उपकरणों की मदद से तत्काल अपने मुख्यालय को देने का कार्य वह करते थे। यह कार्य जोखिम भरा था। शत्रु के जहाजों से अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए वह स्वयं को जमीन में अंग्रेजी के “एल” आकार का गडढा खोदकर, जिसे च कहते हैं, उसमें सुरक्षित रखते थे। इसी च में वह अपने कुछ साथियों के साथ जान हथेली पर रखकर दुश्मन के वायुयानों की गतिविधियों पर नज़र रखते थे। यह भूमिगत सुरंगें घास आदि से इस प्रकार ढ़क दी जाती थीं कि दुश्मन को इनके अस्तित्व का अहसास तक न हो पाए। इस एक सुरंग की सुरक्षार्थ ऐसी ही छह अन्य सुरंगे थल सैनिकों की भी इसके चारों ओर बनी होती थीं। हेलीकॉप्टर से शिवराज जी तथा उनके साथी सैनिकों के लिए खाना लाया जाता था। बैटरी जो कि शिवराज जी के तकनीकी कार्य के लिए आवश्यक थी, उसको चार्ज करके हेलीकॉप्टर लाता था। करीब बाईस दिन सुरंग में रहकर शिवराज जी ने बिताए। इस अवधि में एक बार हेलीकॉप्टर को कुछ गलतफहमी हो गई और तीन दिन तक लगातार खाना शिवराज जी की सुरंग पर नहीं गिर पाया। लिहाजा वह और उनके साथी जिनकी कुल संख्या करीब चालीस थी, तीन दिन तक भूखे-प्यासे रहे।
“हमें भूख नहीं लगी, प्यास नहीं लगी क्योंकि हम देश के लिए काम कर रहे थे।”- शिवराज जी गर्व से कहते हैं। यह कहते हुए उनकी आँखों में एक सैनिक की स्वाभाविक चमक दीखती है।
फिर 1965 का भारत-पाक युद्ध का समय आया। इस बार राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्र बाड़मेर में उनकी ड्यूटी लगी। डेढ़ महीने से अधिक समय तक उन्होंने भारत-पाक सीमा पर डेरा लगाकर वायुसेना के विमानों की तकनीकी कार्य-कुशलता को बनाए रखने में सफलता पाई। यह कार्य काफी जोखिम भरा था। वह रेडियो कम्युनिकशन से सम्बद्ध थे। एयर ट्रैफिक कंट्रोल उनका कार्य था। उनका कार्य हवाई जहाज में लगे ट्रांसमीटर और रिसीवर को ठीक करना तथा इसी प्रकार वायुसेना सेन्टर की जमीन पर लगे ट्रांसमीटर और रिसीवर को ठीक करना था। हवाई जहाजों को दिशा-बोध प्रदान करने में इस सारी व्यवस्था का मुख्य योगदान रहता था। इस व्यवस्था द्वारा हवाई जहाजों का सम्पर्क उनके हेड क्वार्टर से रहता था और वे जरूरी संदेश देने तथा प्राप्त करने दोनों ही कायों में सफल रहते थे। श्री शिवराज जी की हवाई जहाजों में तथा वायुसेना केन्द्रों में इसी कार्य को पूरा करने की ड्यूटी थी।
इस कार्य में जोखिम का जिक करते हुए शिवराज जी ने बताया कि एक बार वह जोधपुर में हवाई जहाज की कतिपय तकनीकी डायरेक्शन फाइन्डिंग या ट्रांसमीटर या रिसीवर की खराबी ठीक करने के उपरान्त बाड़मेर के हवाई अड्डे पर हवाई जहाज की सीढ़ियों से उतर ही रहे थे कि तभी पाकिस्तान का एक विमान एकाएक उनके सिर के ऊपर आ गया। और उसने अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं। उनके शब्दों में यह स्ट्रेपिंग थी अर्थात गोलियों की बौछार । एक बटन दबते ही सौ-सौ गोलियाँ विमान के दोनों तरफ से छूटती थी। यह सब इतनी तेजी से हुआ कि श्री शिवराज जी को भूमिगत सुरंग में जाकर छिपने का मौका भी नहीं मिला। उन्हें हवाई जहाज के नीचे लेटना पड़ा। मृत्यु से साक्षात्कार का यह क्षण था। कोई और होता तो उसी क्षण जान खतरे में देखकर वायुसेना की नौकरी छोड़कर चला आता मगर श्री शिवराज जी ने मौत हथेली पर रखकर वायुसेना की नौकरी स्वीकार की थी तथा सीमा पर युद्ध के मोर्चे पर अपनी खुशी से जाना पसन्द किया था। भारत माता उन्हें पुकार रही थी। उनके कदम पीछे नहीं हटे।
1971 में पाकिस्तान से पुनः युद्ध का अवसर उपस्थित हो गया। शिवराज जी तो जैसे युद्ध के लिए प्रतीक्षा में बैठे थे । बरेली में उन दिनों उनकी पोस्टिंग थी। उनकी बहन भी बरेली में ही रहती थीं। वह बहन से मिलकर बरेली में अपने घर आए ही थे कि घर के बाहर वायुसेना के अधिकारी की जीप ने हॉर्न दिया। शिवराज जी बाहर आए। पता चला कि दुश्मन के दाँत खट्टे करने की घड़ी आ गई है। सोचना क्या था ? शिवराज जी ने बिस्तर बाँधा और बरेली रेलवे स्टेशन पहुंच गए, भारत माता की सेवा करने । वहाँ पूरी स्पेशल ट्रेन एयरफोर्स की थी। शिवराज जी की पत्नी-बच्चे उस समय रामपुर में थे। ट्रेन रामपुर रेलवे स्टेशन से होकर गुजरी थी मगर रूकी नहीं थी। अपने पिता को सिर्फ हाथ हिलाकर प्रणाम करते हुए ही शिवराज जी रामपुर रेलवे स्टेशन को पीछे छोड़कर देश की सेवा के लिए जेसलमेर पहुंच गए। पता नहीं उस समय शिवराज जी के परिवार ने क्या सोचा होगा ! मगर शिवराज जी को तो एक ही धुन थी कि वह देश के काम से जा रहे हैं। वह अपने परिवार से इजाजत कैसे लेते ?
जेसलमेर में भी वही एयरफोर्स की कार्य-प्रणाली में मैकेनिक के रूप में एयर ट्रैफिक कन्ट्रोल की ड्यूटी उनकी लगी। ट्रांसमीटर, रिसीवर और डायरेक्शन फाइन्डर के काम में वह लगे थे। रोजाना मौत सामने दीखती थी।
3 दिसम्बर 1971 को शिवराज जी कैसे भूल सकते हैं ? अचानक एक रात खतरे का लाल साइरन बोल उठा। तुरन्त वह भूमिगत सुरंग अर्थात ट्रेन्च में चले गए। एक पाकिस्तानी विमान एयर स्टेशन के बहुत नजदीक तक आया, घूमा-फिरा और फिर चला गया।
5 दिसम्बर को इससे भी बड़ी घटना हुई। शिवराज जी के एयर स्टेशन पर पाकिस्तान के आठ या दस विमान – संभवतः मिराज-आए और जोधपुर की तरफ जाते हुए देखे गए।
“उनकी गति एक समान थी, दिशा एक समान थी, उनकी ऊँचाई एक समान थी। वह बहुत नीचे थे। हमारे सामने वे पाकिस्तानी विमान जोधपुर, आगरा और बीकानेर पर बमबारी की बर्बादी बरसा आए।” शिवराज जी ने कहा ।
“क्या आप दुश्मन के जहाज को नहीं मार गिरा सकते थे ? मैंने पूछा।
‘एक बात तो यह कि मेरी ड्यूटी बन्दूक चलाने की नहीं थी। सबके काम अलग-अलग थे। दूसरी बात यह थी कि हमारे सामने दुश्मन के एक विमान को गिराने की बजाय अपने एयर फोर्स के एक स्टेशन को बर्बाद होने से बचाने का कार्य ज्यादा महत्वपूर्ण था।” -शिवराज जी ने कहा।
“आपका कार्य क्या था ? यानि आपकी ड्यूटी किस काम पर थी ?” पूछने पर उन्होंने कहा कि उनका कार्य जमीन पर से अपने हवाई जहाजों से सम्पर्क बनाए रखना तथा उनकी कार्य-प्रणाली को ठीक रखना था।
एक दिन एयर फोर्स की रसोई की जल रही आग पर उनकी नजर पड़ी। अरे। यह क्या हो गया ! वह काँप गए। तत्काल दौड़े। पानी डालकर फौरन आग बुझाई। शांति की साँस ले भी नहीं पाए थे कि क्या देखते हैं कि रसोई में सफाई का काम करने वाला लड़का थोड़ी दूर पर टार्च आकाश की ओर दिखा रहा है। | तत्क्षण स्थिति की नजाकत को शिवराज जी समझ गए। उनकी बुद्धि को यह पहचानते देर नहीं लगी कि यह जरूर किसी विदेशी तार से जुड़ी कठपुतली की तरह काम किया जा रहा है। उस लड़के को दूर से ही उन्होंने ललकारा। ललकार सुनकर उसने टार्च बन्द कर दी। लिहाजा शत्रु के हवाई जहाजों को एयरफोर्स-सेन्टर का पता-ठिकाना प्राप्त नहीं हो सका और वह एयर-सेन्टर नष्ट होने से बच गया । अन्यथा भारतीय वायुसेना को जान-माल का काफी नुकसान उठाना पड़ता। बाद में शिवराज जी ने घटना का जिक्र हेड आफिस में किया, उस लड़के को ढूँढ़ा भी, मगर वह नहीं मिला। कुछ दिनों बाद उस लड़के की लाश एक पुलिया के नीचे (जो नाले के ऊपर थी) मिली। संभावना है कि उसे किसी साँप ने डँस लिया होगा।
7 दिसम्बर को शिवराज जी बताते हैं कि ऐसा नहीं हुआ कि पाकिस्तानी विमान आएँ और चले जाएँ। इस बार वे बम गिराकर गए। बम भी एक या दो नहीं, पूरे छत्तीस बम गिराए। एक बंगाली लड़का उनके साथ था, जो समझने लगा था कि पाकिस्तानी जहाज सिर्फ आते हैं ,बम नहीं गिराते हैं। वह टैन्ट में साइरन बजने के बाद भी ताश ही खेलता रहा। जब बम गिराने शुरू हुए, तब वह (भूमिगत बंकर) ट्रंच में भागा। वह बड़ी कठिनाई की रात थी। बमों के टुकड़े दूर-दूर तक बिखर गए थे। यद्यपि बंकरों पर उनका कोई असर नहीं होता था।
9 दिसम्बर 1971 को भी लगभग मौत सामने से होकर गुजरी। शाम सात बजे खतरे का लाल साइरन बजा। जेसलमेर खतरे में डूब गया। शिवराज जी एयर कन्ट्रोल-रूम में बैठे थे। उनकी नजर गई कि उनके ट्रांसमीटर और रिसीवर की लाइट जल रही है। तत्काल वह दौड़ पड़े। ट्रांसमीटर-रूम में घुसते समय उनके पैरों में कोई चीज फँस गई थी, जिसे झटके से उन्होंने झटक कर फेंक दिया था। सैकेन्डों में उन्होंने ट्रांसमीटर के बल्ब निकाल दिए। रोशनी बन्द हो गई। दुश्मन को एक बार फिर भ्रम में डालने में वह सफल रहे। जब बाद में खतरे का लाल सायरन बजना बन्द हुआ तो शिवराज जी ने यह खोजबीन की कि उनके पैरो में दर्द क्यों हो रहा है और किस चीज से वह टकराये थे ? तो देखा कि वह तो उड़ने वाला भयानक साँप था। खैर उस साँप को तो अधमरा पहले ही शिवराज जी ने फेंककर कर दिया था, बाकी मुर्दा एयरफोर्स के बाकी लोगों ने कर दिया । मगर एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि सचमुच कोई शक्ति है, जो उनकी रक्षा ऐन मौके पर कर रही है।
शिवराज बहादुर सक्सेना ने गर्व किन्तु विनम्रता पूर्वक अपनी वीर-गाथा को यह कहकर बहुत प्रेरणाप्रद बना दिया कि जिन्हें मरना नहीं आता, उन्हें जीने की कला नहीं आती। सचमुच शिवराज जी ने मृत्यु को हथेली पर रखकर अनेक युद्धों में भारत का मस्तक गर्व से ऊँचा करने के लिए संघर्ष -पूर्ण जीवन जिया है। उनके विचार देशाभिमान से भरे हैं । उनमें सादगी है। वह सरल हैं। उनमें सत्य का आकर्षण है। उनकी आँखों में वही चमक है, जो भारत के वीर सैनिकों की राष्ट्रीय विशेषता है। निम्न पंक्तियों के साथ श्री शिवराज बहादुर सक्सेना को प्रणाम :-
देशभक्ति भावना हिलोरें जहाँ मार रही
चुनी देश-सेवा हेतु भारतीय सेना है
लड़ने लड़ाई चीन से जो सीमा पार गया
सोच ब्रह्मपुत्र तट से जवाब देना है
पैंसठ-इकहत्तर में सोच पाक से लड़ा जो
सारे अपमानों का ही बदला ले लेना है
सैनिक सपूत वह रामपुर नगर का
नाम शिवराज बहादुर सक्सेना है
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22 फरवरी 2010 सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक) रामपुर में यह लेख प्रकाशित हो चुका है ।