पल पल शर्मिंदा दिखे , लोकतंत्र हर रोज ।
पल पल शर्मिंदा दिखे , लोकतंत्र हर रोज ।
पर प्रहरी के भाल पर , छल प्रपन्च का ओज ।।
छल प्रपन्च का ओज , दम्भ है इतना छाया ।
हासिल आया शून्य , राष्ट्र भी खुद शरमाया ।
नफरत का बाजार , हो रही चहुँ दिशि निंदा ।
लोकतंत्र हर रोज , दिखे पल पल शर्मिंदा ।।
सतीश पाण्डेय