पलाश के फूल
छोड़ जाता हूँ रोज
गुमनाम खत उनके नाम
धूप हवाओं के पास
इस उम्मीद में कि वो समझ ले
क्यों है तपिश आज धूप में,
हवायें रुक-रुककर क्यों बह रही है??
आये थे वे कभी बसन्त बनकर
मिला मैं, सरसो के फूल सा।
विरह में अब उनके
लगा झड़ने खेतो में,
उनकी यादो के साथ।
आज है लिख छोड़ा खत में
रोना मत लौट आया हूॅ मैं
तुझसे मिलने की खातिर
पतझड़ के मौसम में,
पलाश का फूल बनकर।