पलस्तर छूटने लगता है
दरारें खुलने लगती है
नज़ारा दिखने लगता है
लगा दो इश्तहार फिर भी
किनारा सीलने लगता है
बांधा क्यों ज़ोर से इतना
मरासिम टूटने लगता है
ख़लिश से ऐसा रिश्ता है
ज़ख़्मों में छिपने लगता है
दीवारें मज़बूत थी कितनी
दरवाज़े दबीज़ थे जितने
उसी के जज़्बों में दम था
पलस्तर छूटने लगता है
जज़ीरे पे लहर थी
अजीब वो एक शहर था
मोहब्बत जब मुस्कुराती थी
किनारा छूटने लगता था
ग़लीचे बेहद ख़ूबसूरत थे
दरीचा देखता रहता था
धूप की आँच ऐसी थी
सीवन छूटने लगता है
कोई अनजान सा चेहरा
निगाहों में उभरता है
जब उसकी आहट होती है
दरवाज़ा हिलने लगता है
यतीश ११/१०/२०१७