पलट रही विश्वकाया ( कविता )
मोहमाया के जगत में,
अवमान – मान का तिलम है ।
सुख – दुःख का मिथ्या रिश्ता,
दर्द भरी कहानी है सबका ।
कोई जीता रो – रोकर….
आर्थिक के अभिशाप से ।
कोई जीता है हंस – हंसकर,
चोरी – डकैती – लूट – हत्या से
न किसी का कभी था,
न होगा कभी किसी का ।
कहीं सत्ता की लूटपैठी है,
कहीं मजदूरी भी नसीब नहीं ।
क्या यहीं आदर्शवादी है ?
क्यों दिगम्बर हो रहा संसार !
वृक्ष – काश्त हो रही विरान,
पलट रही विश्वकाया ।
जल के लालायित है अब,
अब होंगे प्राणवायु के व्यग्रता ।
क्या होगा अब इस जगत का !
जब हो जाएगा मानव दुश्चरित्र ।