पलक-पाँवड़े
पलक-पाँवड़े
पलक-पाँवड़े बिछाए बैठा हूँ,
आपकी प्रतीक्षा में,
ज्यों बैठा हो कोई किसान
बंध्य-भूमि का स्वामी,
मधुमास की प्रतीक्षा में।
सोचता हूँ, आपका आगमन
दिख जाये कोई नखलिस्तान,
रेगिस्तान में भटका हुआ पथिक
जिस तरह सोचता है।
व्यथित हूँ आपके दरस में विलम्ब से,
किसी पिंजरे में बंद पखेरू
पंख-विहीन अनुभव कर
उड़ने को
जिस तरह तरसता है।
अनुभव करता हूँ,
अपनी व्याकुलता,
किसी आकार को उकेरने में,
प्रयासरत कोई चितेरा
जब रहता है असमर्थ और
स्वयं पर ही खीझता है।
(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”