पर्यावरण
सुधरता नहीं
इन्सान
बिगाड़ता
पर्यावरण
बार बार
होता धरा को
नुकसान जिससे
वहीं करता
वो काम
बार बार
वृक्ष हैं देवता
हमारे
देते छाया हवा
फल फूल हमें
फिर भी
उन्हें ही काटते
बार बार
नदी , झील
तालाबों को
अतिक्रमण कर
पाटते जाते
बनाते
कंक्रीट के जंगल
बार बार
है जीने का
हक सभी को
पशु पंछी
वन्यजीव
मारते खाते
बार बार
तभी होती
विवश प्राकृति
बदला लेने को
बार बार
कभी बाढ़,
कभी सूखा
कभी फैलते वायरस
बार बार
सुधर जा
इन्सां
अब भी
रखो
पर्यावरण को
साफ स्वच्छ
रोको प्रदूषण को
हर बार
चेते नहीं
इन्सां अब भी
विवश होगी
बदला लेने को
प्राकृति मजबूर
बार बार
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल