पर्यावरण दिवस
हे! मानव,
प्रकृति के कहर से डर
वातावरण में जहर न भर,
खुद के स्वार्थ में
चलायी कुल्हाड़ी
पेड़ो की गरदन पर,
काट डाला उन हरे-भरे पेड़ों को
जिनकी छांंव में बैठते थे
श्रांत पथिक
दूर करते थे थकान,
पक्षी चहचहाते थे
गोधूलि बेला में,
आती थी आवाजें
चमकते थे जुगनूं,
पत्तों की खड़खड़ाहट
गूंंजती थी रातों को,
याद कर बचपन
जब पेड़ों पर चढ़कर
तोड़ते थे आम, जामुन,
शीत में लकड़ियों को जलाकर
मिटाते थे ठंड को,
खेलते थे टहनियों पर
फुदकते थे डाल-डाल,
चली तुमने फिर घृणित चाल
उजाड़ा जंगल, उपवन
बसाया शहर,
विकास के बहाव में,
ढह गए पेड़,
जिसके अभाव में
फैल रहा प्रदूषण,
बढ़ रहा वैश्विक तापन
फिर भी काटे जाते हैं,
लाखों पेड़,
पर वर्ष में एक बार,
रोपते हैं एक पौधा,
लेते हैं अनगिनत फोटो,
और मनाते हैं ‘पर्यावरण दिवस’।