पर्यावरण और आध्यात्म
एक ऐसा आवरण, जिसमें हमको आनंद और ” सर्वे सन्तु निरामया का” बोध हो। पर्यावरण वस्तुत: एक रक्षा कवच ही है । हमारी प्राचीनतम् संस्कृति में पर्यावरण को देवतुल्य स्थान दिया गया है। पर्यावरण के सभी अंग जल, वायु, भूमि को देवता ही माना गया है। हिन्दू दर्शन में मनुष्य में पंच तत्वों का समावेश माना गया है। मनुष्य पांच तत्वों जल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी और वायु से मिलकर बना है।
वैदिक काल से इन तत्वों को देवता मान कर इनकी रक्षा का करने का निर्देश दिया गया है । वेदों के छठे अंग ज्योतिष में नक्षत्र, राशि और ग्रहों को भी पर्यावरण के अंगों जल-भूमि-वायु आदि से जोड़ा गया है और तीन प्रकार के कष्टों आध्यात्मिक , आधिदैविक और आधिभौतिक कष्टों के निवारण के लिए पूजा-पद्धति को अपनायि गया है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है–
“अश्वत्थ: सर्व वृक्षा वृक्षाणां ”
अर्थात् मैं वृक्षों में पीपल हूँ
पौराणिक ग्रंथों, ज्योतिष ग्रंथों व आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुसार ग्रहों व नक्षत्रों से संबंधित पौधों का रोपण व पूजन करने से मानव का कल्याण होता है। इसलिए प्रकृति पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देना चाहिए ।
पेड़-पौधे मौलश्री, कटहल, आम, नीम, चिचिड़ा, खैर, गूलर, बेल आदि पौधे विभिन्न प्रकार सकारात्मक ऊर्जा के साथ ही साथ अतिसार, रक्त विकार, पीलिया, त्वचा रोग आदि रोगों में लाभकारी औषधि के रूप में प्रयोग किए जाते हैं।
ज्योतिष से जुड़े विद्वान पर्यावरण के क्षेत्र में जातक की कुंडली का भली-भांति अध्ययन करके, जो ग्रह या नक्षत्र निर्बल स्थिति में हैं उनसे संबंधित वृक्षों की सेवा करने, उनकी जड़ों को धारण करने की सलाह देते है । यह कार्य आने वाली पीढ़ी और संस्कृति संरक्षण के लिए अती उत्तम होगा ।
. सत्य की खोज में आमतौर पर विज्ञान और आध्यात्म को एक दूसरे से भिन्न माना जाता है। दोनो का ही आधार स्तंभ है जिज्ञासा। आधुनिक विज्ञान वस्तुनिष्ठ विश्लेषण का तरीका अपनाता है, और आध्यात्म आत्मपरक विश्लेषण करता है। ‘ये जगत क्या है ?’ इन प्रश्नों के साथ विज्ञान बाहरी जगत को जानने में रत रहता है ।
प्रकृति को अलग करके आध्यात्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ईहलोक और परलोक के बीच ईश्वर की प्रतीति प्रकृति ही है। जिसकी की हम उपेक्षा और दोहन कर रहे हैं। यही उदासीनता काल का ग्रास बन रही है।पंच तत्व ही पंच परमेश्वर है। देवियाँ पर्वतवासिनी हैं, वह अन्नपूर्णा हैं, उनके हाथ में अस्त्र-शस्त्र और शास्त्र हैं। भगवान शंकर की जटाओं से गंगा निकलती है और वह गले में सर्पहार पहनते हैं।
शेषनाग भगवान विष्णु जी की छत्र-छाया करते हैं, वह क्षीरसागर में विश्राम करते हैं। समस्त नवग्रह भी समष्टि-सृष्टि के ही प्रतीक है यहीं आध्यात्मिक पर्यावरण है ।
प्राचीन समय के जगत में ज्ञान में कोई संघर्ष नहीं था। मनुष्य का स्वयं के बारे में ज्ञान और ब्रह्माण्ड के बारे में ज्ञान, एक दूसरे के पूरक थे, और ये ज्ञान मनुष्य का सृष्टि के साथ एक सुदृढ़ और स्वस्थ संबंध बनाने का आधार था। इन दो प्रकार के ज्ञान को अलग मानने की वजह से आज विश्व के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं।
.. ज्ञान के मुताबिक मनुष्य के अनुभव में ५ परतें आती हैं, जो कि हैं – पर्यावरण, शरीर, मन, अंतर्ज्ञान और आत्मा।
सत्य की खोज में आमतौर पर विज्ञान और आध्यात्म को एक दूसरे से भिन्न माना जाता है। दोनो का ही आधार स्तंभ है जिज्ञासा। आधुनिक विज्ञान वस्तुनिष्ठ विश्लेषण का तरीका अपनाता है, और आध्यात्म आत्मपरक विश्लेषण करता है।
पर्यावरण के साथ हमारा संबंध हमारे अनुभव की सर्वप्रथम और सब से महत्वपूर्ण परत है। अगर हमारा पर्यावरण स्वच्छ और सकरात्मक है तो हमारे अनुभव की बाकी सभी परतों पर इसका सकरात्मक प्रभाव पड़ता है, और वे संतुलित हो जाती हैं और हम अपने और अपने जीवन में आये व्यक्तियों के साथ अधिक शांति और जुड़ाव महसूस करते हैं।
मनुष्य की मानसिकता के साथ पर्यावरण का एक नज़दीकी रिश्ता है। प्राचीन समय की सभ्यताओं में प्रकृति को सम्मान के भाव से देखा गया है – पहाड़, नदियां, वृक्ष, सूर्य, चँद्र…। जब हम प्रकृति और अपनी आत्मा के साथ अपने संबंध से दूर जाने लगते हैं, तब हम पर्यावरण को प्रदूषित करने लगते हैं और पर्यावरण का नाश करने लगते हैं। हमे उस प्राचीन व्यवस्था को पुनर्जीवित करना होगा जिससे की प्रकृति के साथ हमारा संबध सुदृढ़ बनता है।
आज के जगत में ऐसे कई व्यक्ति हैं जो कि लालचवश, जल्द मुनाफ़ा और जल्द नतीजे प्राप्त करना चाहते हैं। उनके कृत्य जगत के पर्यावरण को नुक्सान पँहुचाते हैं। केवल बाहरी पर्यावरण ही नहीं, वे सूक्ष्म रूप से अपने भीतर और अपने आस पास के लोगों में नकरात्मक भावनाओं का प्रदूषण भी फैलाते हैं। ये नकरात्मक भावनायें फैलते फैलते जगत में हिंसा और दुख का कारण बनती हैं।
अधिकतर युद्ध और संघर्ष इन्हीं भावनाओं से ही शुरु होते हैं। जिसके परिणाम में पर्यावरण को नुक्सान होता है, और उसे स्वस्थ करने में बहुत समय लगता है। हमें मनुष्य के मानसिकता पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यह मानसिकता ही प्रदूषण की जड़ है – स्थूल तथा भावनात्मक। अगर हमारे भीतर करुणा और परवाह जग जाते हैं, तो वे आधार बनते हैं एक गहरे संबंध का जिस में कि हम पर्यावरण की और व्यक्तियों की देखभाल करते हैं।
.. प्राचीन समय में अगर एक व्यक्ति एक वृक्ष काटता था तो साथ ही ५ नये वृक्ष लगाता था। प्राचीन समय में लोग पवित्र नदियों में कपड़े नहीं धोते थे। केवल शरीर के अग्नि-संस्कार के बाद बची हुई राख को नदी में बहाते थे ताकि सब कुछ प्रकृति में वापिस लय हो जाये। हमें प्रकृति और पर्यावरण को सम्मान और सुरक्षा के भाव से देखने वाली प्राचीन प्रणालियों को पुनर्जीवित करना होगा।
.. प्रकृति के पास संतुलन बनाये रखने के अपने तरीके हैं। प्रकृति को ध्यान से देखो तो तुम पाओगे कि जो पंचतत्व इसका आधार हैं, उनका मूल स्वभाव एक दूसरे के विरोधात्मक है। जल अग्नि का नाश करता है। अग्नि वायु का नाश करती है…। और प्रकृति में कई प्रजातियां हैं – पक्षी, सरीसृप, स्तनधारी…। भिन्न प्रजातियां एक दूसरे से वैर रखती हैं, फिर भी प्रकृति एक संतुलन बना कर रखती है। प्रकृति से हमे ये सीखने की आवश्यकता है कि अपने भीतर, अपने परिवेश में और जगत में विरोधी शक्तियों का संतुलन कैसे बनाये रखें।
सबसे अधिक आवश्यक है कि हमारा मन तनाव मुक्त हो और हम इस खुले मन से जगत का अनुभव कर सकें। ऐसी मनस्थिति से हम इस सुंदर पृथ्वी का संरक्षण करने के उपाय बना सकेंगे। आध्यात्म से हमे अपने असल स्वभाव का अनुभव होता है और खुद से और अपने परिवेश से एक जुड़ाव का एहसास होता है। अपने असल स्वभाव के साथ परिचय होने पर नकारात्मक भावनायें मिट जाती हैं, चेतना ऊर्ध्वगामी होती है और पूरी पृथ्वी की देखभाल के लिये एक दृढ़ संकल्प उपजता है।हमारी चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने में और अपने आप से और अपने परिवेश से अपने संबंध को सुदृढ़ करने के लिये क्या करना चाहिये?
ये कुछ आवश्यक बातें हैं –
उप्युक्त भोजन : भोजन से हमारे मन पर असर पड़ता है। आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि भोजन से हमारी भावनाओं पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भावनात्म्क रूप से परेशान बच्चे अधिक भोजन लेते हैं और मोटापे के शिकार हो जाते हैं। एक संतुलित आहार का हमारी भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव होता है और इसका असर हमारी चेतना पर होता है।
योग, ध्यान और प्राणायाम : योग, ध्यान और प्राणायाम। अपने शरीर और पर्यावरण को सम्मान की दृष्टि से देखने में ये बहुत सहायक हैं। ये अपने शरीर और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने में सहायक होता है और भावनात्मक असंतुलन से भी मुक्त करता है।
संगीत : इनसे शरीर और मन में तारतम्यता और समतुलना आती है। खासतौर पर उस संगीत से जो कि बहुत तेज़ और कोलाहलपूर्ण ना हो। शांतिदायक संगीत हमारे मन और शरीर में एक स्पंदन पैदा करता है जो कि समतुलना लाता है, जैसे कि शास्त्रीय और लोक संगीत।
प्रकृति : प्रकृति के साथ समय बिताना, मौन रहना, प्रार्थना करना..ये बहुत सहायक हैं । यह जीवन में संतुष्टि के लिए अनिवार्य है।