पर्यावरणीय सजगता और सतत् विकास ही पर्यावरण संरक्षण के आधार
पर्यावरणीय सजगता और सतत् विकास ही पर्यावरण संरक्षण के आधार
नारी शक्ति में समाहित है पर्यावरण संरक्षण, संवर्धन और सतत् विकास की अदम्य क्षमता
– डॉ० प्रदीप कुमार दीप
पर्यावरण के प्रति संरक्षणवादी दृष्टिकोण विकसित करने तथा इसके संरक्षण, संवर्धन और विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्रति वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। वर्ष 2023 का विश्व पर्यावरण दिवस “प्लास्टिक प्रदूषण को हराएं ” (Beat Plastic Pollution ) के ध्येय वाक्य (थीम) के साथ विश्वभर में बड़ी सिद्दत से मनाया जा रहा है । चूंकि पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य , प्रकृति तथा पर्यावरण का अभिन्न अंग होता है तथापि यह विचारधारा मनुष्य एवं पर्यावरण के बीच मैत्रीपूर्ण , सौहार्द्रपूर्ण एवं सहजीवी संबंधों पर विशेष बल देती है। वास्तव में देखा जाए तो इस विचारधारा की मान्यता है कि मनुष्य एवं प्रकृति के बीच सौहार्द्रपूर्ण और सहजीवी तालमेल होना चाहिए ना कि शत्रुता । यह भौगोलिक विचारधारा प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण एवं नियंत्रित विदोहन, उपयोग के साथ ही पर्यावरणीय संरक्षण, संवर्धन और प्रबंधन के समुचित कार्यक्रम , शिक्षा , नीतियों तथा रणनीतियों इत्यादि पर विशेष और अधिक बल देती है । सामान्यतया प्रकृति , पर्यावरण एवं पारिस्थितिकीय संतुलन तथा पारिस्थितिक स्थिरता को सुव्यवस्थित रखने के लिए स्वयं ही प्रयत्नशील रहती है , परंतु आधुनिक भौतिक – औद्योगिक युग ने प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध लोलुपतापूर्ण तथा अविवेकपूर्ण विदोहन के चलते तीव्रतम होते पर्यावरणीय एवं जैवविविधता संकट के कारण पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय गुणवत्ता को कायम रखने तथा उनका संरक्षण , संवर्धन , नियोजन एवं प्रबंधन करना अत्यंत आवश्यक हो गया है । अतः इस दिशा में मानवीय मूल्यों , नैतिकता ओर मौलिक संवेदनाओं को नैतिक,आध्यात्मिक एवं बौद्धिक विकास के माध्यम से प्रबलता प्रदान की जाकर वैश्विक पारिस्थितिकीय असंतुलन को दूर किया जा सकता है ।
इस दिशा में पर्यावरणीय सजगता और सतत् विकास दोनों ही पर्यावरण संरक्षण के मूल आधार हैं । पर्यावरणीय सजगता से तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति में यहां तक कि बच्चों में भी पर्यावरण पारिस्थितिक-तंत्र एवं जैवविविधता के प्रति संरक्षणवादी दृष्टिकोण विकसित करने से है । इस हेतु यह आवश्यक है कि पर्यावरण और उसके जैविक एवं अजैविक घटकों की समझ विकसित कर उनकी उपयोगिता और लाभों को आत्मसात् किया जाए और करवाया जाए और यह तभी संभव है जब जैव-नैतिकता का विकास किया जाए । जैव-नैतिकता के विकास के लिए प्रारंभिक शिक्षा के तौर पर पर्यावरण शिक्षा को अनिवार्य किया जाना अपेक्षित है क्योंकि बालक का मन और मस्तिष्क दोनों ही कोरी पट्टी की तरह होते हैं जिस पर जैव-नैतिकता के रूप में पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन के नैतिक मूल्यों को अंकित किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त आधी आबादी यानी महिला शक्ति को भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए। क्योंकि एक महिला ही पुरूष को नैतिक मूल्यों से रूबरू करवाती है जो कि दादी , नानी , मां , बहन , बेटी और पत्नी के विविध स्वरूपों में उपस्थित हैं । जो स्वयं प्रकृति और सृजना है वो संरक्षण और संवर्धन का जिम्मा कैसी नहीं उठा सकती ? उठा सकती है और वह भी बखूबी से । बशर्ते कि वह अपने वास्तविक स्वरूप को पहचाने । यह सर्वविदित है कि मां, बच्चे की प्रथम पाठशाला है यानी सद्गुण और संस्कारों की जननी होने के कारण संरक्षणवादी दृष्टिकोण विकसित करने में एक मां का महत्वपूर्ण योगदान होता है । इसी क्रम में नारी अपने विविध स्वरूपों में पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन में अपना विशिष्ट योगदान प्रदान कर सकती है । पर्यावरणीय सजगता के साथ ही सतत् विकास में भी नारी शक्ति अपना अमूल्य योगदान दे सकती है । सतत् विकास से तात्पर्य है – भावी पीढ़ियों को ध्यान में रखते हुए पर्यावरणीय संसाधनों का विवेकपूर्ण तरीके से विदोहन तथा संसाधन संरक्षण के साथ ही उनका पुनर्निर्माण और संवर्धन। यह अवधारणा मूलतः पर्यावरण , पारिस्थितिक-तंत्र एवं जैवविविधता के सतत् संरक्षण , संवर्धन और विकास को इंगित करती हैं । महिला शक्ति के योगदान और कर्तव्यों को सुनिश्चित किया जाए तो हम कह सकते हैं कि नारी शक्ति यह सुनिश्चित करें कि भावी पीढ़ियों को ध्यान में रखते हुए पर्यावरणीय संसाधनों को सुरक्षित रखने का नैतिक मूल संदेश सतत् रूप से प्रदान करती रहें ताकि पर्यावरण, पारिस्थितिक-तंत्र एवं जैवविविधता का संरक्षण , संवर्धन और विकास सतत् रूप से एक भौगोलिक और पारीस्थितिकीय चक्र के रूप में चलता रहे । अन्यथा वर्तमान भौतिक और आर्थिक युग में आर्थिक विकास के नाम पर पर्यावरणीय क्षति की कीमत भौमिक क्षरण, मृदा अपरदन और अनुर्वरता, भूमि, वायु और जल प्रदूषण , वनावरण में कमी, सूखा और बाढ़ , ओजोन परत निम्नीकरण , ग्लोबल वार्मिंग , भूस्खलन , मरूस्थलीकरण , अम्लीय वर्षा , जैवविविधता संकट जैसी अनेक भौगोलिक – पास्थितिकीय समस्याओं की उत्पत्ति सुनिश्चित है