परिस्थितियाँ
कली के भीतर बंद था,
भ्रमर मन ही मन कंत था,
न उपाय सूझा न स्थिति बूझा,
बस फड़फड़ाता तंग था ।
सीमा स्वछंद न होकर के उसकी,
घुट रहा था पंखुड़ियों के मध्य में वह,
चाहता उत्तुंग नभ में उड़ सके,
और कर सके पराग से वह कंठ को तर ।।
क्लान्त स्वर में चीखता था वेदना से
सुन रहा वह आप ही निस्तब्ध होकर
व्यथा के बाजुओं में बंधकर के उलझा
निस्तेज हो रहा है फिर से हार-थककर ।
आश की किरनें सब अस्त हो रही हैं,
विश्वास का संकल्प पस्त हो रहा है
द्वन्द के रणक्षेत्र में घबराये मन से चींखकर
कर रहा पुकार है कुछ दया कर हे ईश्वर !
(पूर्णतया स्वरचित, स्वप्रमाणित एवं अप्रकाशित)
आनन्द बल्लभ (अल्मोड़ा, उत्तराखंड)