अनजान मंजिल
अनजान मंजिल की राह में ,
चल पड़े एक पथिक गढ़ ,
खोजते अपने मंजिल को ,
अपना कृत्य करते चलते।
हयात में समय बीतता गया ,
पर न मिला पंथ का अंत ,
एक दिवा हमने ब्योरा था ,
आखिर कहाँ तक पहुँचे हम?
जब सूत्रपात को अवलोका हमने ,
तब अंदाज हुआ स्वयं का महत्ता ,
कहाँ जनसमूह का अंश गढ़े थे ,
पर आज तनहा तत्क्षण है हम।
कृत्य पंथ पर चलते – चलते ,
एक दिवा ऐसा आया जब ,
अपनी क्लांति के सहारे हमने ,
मंजिल चरण – चिह्नों में झुकाया।
ना रुकना , ना थकना कभी ,
कृत्य पंथ पर चलते चलना ,
तभी एक दिवा ऐसा आएगा ,
मंजिल सम्प्राप्ति होगी तुम्हें।
मंजिल लहने के पश्चात भी ,
ना करना कभी तृष्ण तुम ,
अन्यथा एक धब्बे के सबब ,
अभ्रांत मंजिल से तुम्हें नीचे ,
गम्य तहसील पहुँचा देगा।
✍️✍️✍️उत्सव कुमार आर्या