परिवर्तन
खुद डूबी क्या समंदर में कि तैरना आ गया,
खुश हूँ मुझे भी हालातों से उबरना आ गया।
ठहर जाते थे लोग कभी गैरों के आंसू देखकर,
वक्त के साथ सबको चुपचाप गुजरना आ गया।
जिन्हें जल्दी थी मंजिल की वो आगे चले गए,
हमें रास्तों से इश्क़ हुआ और ठहरना आ गया।
निगाहों में सजा सँवरा करते थे जिनके हम कभी,
फ़रेब क्या दिखा कि आईनों में सँवरना आ गया।
अब तो परछाई पर खुदकी भरोसा नहीं रहा है,
रौशनी कम हुई तो इसे भी साथ छोड़ना आ गया।
सीने में दफ्न रह गए थे जो शब्द तुम्हारे जाने पर,
वो चीखते हैं अब उन्हें पन्नों पर उतरना आ गया।
शुक्र है ये मलहम मेरे काम का तो निकला कुछ,
कलम उठाया और जख्मों पर लिखना आ गया।
✍️✍️✍️खुशबू खातून