परिंदों के आशियाने……..
बैंक में आज आम दिनों की भांति कुछ ज्यादा ही भीड़ थी। वैसे भी आज शनिवार का दिन तो था ही, और फिर शनिवार को तो बैंक का लेनदेन भी दोपहर तक ही सिमट जाता है। बिरजू भी काफी देर से लाइन में लगा हुआ था। मगर लाइन थी जो टस से मस ही नहीं हो रही थी। शायद! खजांची बाबू के कंप्यूटर में ही कुछ गड़बड़ थी। तभी तो लाइन रुकी खड़ी थी। एक पुराना-सा कपड़े का झोला जिसमें कई सिलवटें पड़ी हुई थीं, उसे कई बार मोड़कर बिरजू ने अपनी बगल में दबा रखा था। शायद! इसे पैसे रखने के लिए ही वो अपने साथ लाया होगा? अचानक से लाइन में कुछ हलचल सी हुई और लाइन में खड़े लोग चीटियों की कतार की भांति आगे सरकने लगे। शायद! खजांची बाबू का कंप्यूटर ठीक हो गया था। इसीलिए उन्होंने भी जल्दी-जल्दी लाइन में खड़े लोगों को निपटाना शुरू कर दिया था। बिरजू भी धीरे-धीरे कम हो रही लोगों की पंक्ति में अपनी बारी का बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। मगर पीछे से बार-बार हो रही धक्का-मुक्की देखकर उसकी रूह तक कांप रही थी। जरा-सी धक्का-मुक्की शुरू होते ही उसके हाथों की जकडन बगल में दबे उस खाली झोले पर अनायास ही बढ़ जाती थी। यद्यपि झोला बिल्कुल खाली था, मगर बिरजू ने लोगों की नज़रों से बचाकर उसे इस तरह बगल में दबा रखा था जैसे सुदामा ने श्रीकृष्ण की नज़रों से चावल की पोटली छिपा रखी थी। कहने को तो लाइन में अब भी काफी भीड़ थी मगर बिरजू के आगे-पीछे काफी जगह रिक्त ही पड़ी थी। शायद! लोगों को उसके मैल से सने कपड़ों से घिन्न हो रही थी। जिन पर मक्खियां भिनभिना रही थीं। इसी वजह से लोग दूर खड़े उसके बारे में खुसर-फुसर कर रहे थे। मगर बिरजू जल्दी ही खजांची बाबू से पैसे लेकर बैंक से बाहर आ गया। ये पैसे उसने अपनी बेटी छुटकी के ब्याह के लिए निकलवाए थे। अपनी जवान बेटी के हाथ पीले करने के लिए ही उसे अपने पुरखों से विरासत में मिला पुश्तैनी मकान भी बेचना पड़ा। मगर खरीदार के सामने बिरजू ने शर्त रखी थी कि मकान शादी के बाद ही खाली हो पाएगा। खरीदार भी इस पर सहमत हो गया था। आखिर! तीन-चार दिन की ही तो बात थी, और फिर उसे बना बनाया मकान कौडिय़ों के भाव भी तो मिल रहा था। फिर बिरजू की भी तो ख्वाहिश थी कि छुटकी का ब्याह पूरे ठाठ-बाट से हो, उसमें कोई कमी ना रहे। आखिर छुटकी इकलौती बेटी थी। फिर बेटी को थोड़ा-बहुत दान-दहेज देना भी जरूरी था। अगर बेटी को खाली हाथ विदा कर दिया तो बिरादरी वाले क्या कहेंगे? नाक कट जायेगी सबके सामने। लोग कहेंगे कि बिन मां की बच्ची को खाली हाथ ही विदा कर दिया। थू-थू करेंगे सब। यही सोचकर बिरजू को अपना घर बेचना पड़ा। आखिर! गरीब आदमी करे भी तो क्या? और फिर अकेले आदमी का रहना भी कोई रहना होता है भला, वो तो कहीं भी किराए का छोटा सा कमरा लेकर गुजर-बसर कर सकता है। मगर पुरखों के मकान को बेचने की टीस तो कहीं ना कहीं बिरजू के मन में भी थी। क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि पुरखों की जमीन सिर्फ अमानत होती है, जिसे भावी पीढ़ी के सुपुर्द करना होता है। परंतु घर बेचना बिरजू की मजबूरी भी तो थी। बेटी को अपने घर से विदा करना एक बाप का फर्ज ही नहीं बल्कि कर्तव्य भी तो होता है और फिर लड़के वाले भी तो कब से गाड़ी लेने की जिद्द पकड़े हुए थे। फिर बिरजू भी हाथ आया इतना अच्छी रिश्ता नहीं तोडऩा चाहता था। क्योंकि लड़का सरकारी महकमे में अधिकारी था तो बाप भी शहर का नामी-गिरामी वकील था। राज करेगी बेटी। बस यही सोच कर बिरजू ने अपने मन को समझा लिया था। निश्चित दिन बारात आई और छुटकी देखते ही देखते विदा भी हो गई। बेटी के विदा होते ही मेहमान भी एक-एक करके सरकने लगे। क्योंकि सभी जानते थे कि अगर इस वक्त किसी ने जरा-सी भी हमदर्दी दिखाई तो बूढ़ा उम्र भर के लिए गले की फांस बन जाएगा। बेटी के विदा होने और मेहमानों के चले जाने से सारा घर सूना-सूना हो गया था। जहां कुछ देर पहले शहनाइयां गूंज रही थीं वहां अब सन्नाटा पसरा पड़ा था। धीरे-धीरे रात भी अपने चरम पर पहुंच चुकी थी। मगर बिरजू की आंखों से नींद कोसों दूर थी। बिरजू रात भर सूने पड़े आंगन और घर की दीवारों को निहारता रहा। क्योंकि उसे अच्छी तरह पता था कि सुबह होते ही उसे यहां से चले जाना होगा और हुआ भी यही भोर की पहली ही किरण के साथ मकान मालिक ने अपना घर खाली करा लिया। बिरजू बाहर खड़ा काफी देर तक अपने मकान को निहारता रहा। आखिर इसी के आंगन में तो उसका सारा जीवन बीता था और अब यहीं से उसे बेघर होना पड़ रहा था। ‘दरख्तों की शाखाओं पर रहने वाले परिंदे तो दिन भर की मेहनत से तिनका-तिनका जोड़कर अपना आशियाना बना लेते हैं। कुछ दिन वहां रहकर वो और ठिकाना ढूढ़ लेते हैं। मगर इनसान के घर परिंदों के बनाए घास-फूस के घोंसले नहीं होते, जिन्हें मौसम बदलते ही बदल लिया जाए। मनुष्य अपना आशियाना बनाने में उम्र भर कमाई पाई-पाई लगा देता है। तब कहीं जाकर दीवारें खड़ी हो पाती हैं। ‘फिर अचानक ही अपने घर से बेघर होना भला किसे स्वीकार हो सकता है।’ बिरजू खुले आसमां तले खड़ा अपने मकान को निरंतर निहारे जा रहा था। नए मकान मालिक के नौकर-चाकर उसका सामान घर के अंदर लगा रहे थे। काफी देर तक अपने मकान को निहारते-निहारते उसकी आंखों में आंसू आ चुके थे। बिरजू की आंखों मे आए आंसू इस तरह झिलमिला रहे थे जैसे सूरज की उजली किरणों से नदी का बहता नीर चमक उठता है। मगर जल्दी ही बिरजू ने अपने आंसू पोछ दिये। वह अपना सामान उठाकर सजल नेत्रों से कहीं दूर नए आशियाने की तलाश में निकल गया।
नसीब सभ्रवाल “अक्की”
गांव व डाकघर -बान्ध,
जिला -पानीपत,
हरियाणा-132107