पराये लोग हैं सारे कोई अपना नहीं लगता
पराये लोग हैं सारे कोई अपना नहीं लगता
तुम्हारे बिन ज़माने में कोई अच्छा नहीं लगता
तुम्हारे बोल हैं ख़ाली हक़ीक़त और ही कुछ है
मेरे सर पर मुझे तेरा कहीं साया नहीं लगता
अना सर पर चढ़ी उसके अजब तेवर दिखाता है
निभा ले चार पल को वो मुझे ऐसा नहीं लगता
सरों पर छत नहीं लेकिन दिलों में इक उजाला है
इन्हें फुटपाथ पर सोना पड़े अच्छा नहीं लगता
अगर मां-बाप बूढ़े हैं लगे हैं बोझ बेटे को
मगर मां-बाप को बेटा कभी बोझा नहीं लगता
कमाने गाँव से आये कमा कुछ भी नहीं पाये
नहीं गर शह्’र में आते कोई सदमा नहीं लगता
ख़ुदा की एक नेमत है मिला जो प्यार माँ से है
नहीं होता पुराना ये कभी मैला नहीं लगता
बड़ा दिल का नरम है वो झुकाकर सर ही रहता है
खिलाड़ी है बड़ा ‘आनन्द’ पर वैसा नहीं लगता
– डॉ आनन्द किशोर