परतंत्र नर स्वतंत्र परिन्दा
परतंत्र नर स्वतंत्र परिन्दा
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विहंगम कर पिंजरें थे कैद
कैद कर के ना किया खेद
द्विग आजादी को था छीना
चौड़ा करके खुद का सीना
नभचर उड़ना तक थे भूले
जब से झूले बांहों के झूले
कितना सुन्दर राग थे गाते
स्वतंत्र नभ में थे चहचहाते
विचरण कर दाना थे चुगते
कलरव कर आसमां उठाते
स्वार्थ-शौक में होकर अंधा
करता था तू यह गंदा धंधा
काल ने बदल दिया है छोर
दिशा दशा बदली चहुंओर
नभ में खग विचरण करता
मानव बंद कमरों में सड़ता
कलरव कर मधु राग गाए
नर को निज दुर्दशा सताए
स्वतंत्र नभ में उड़े परिन्दा
दिखे ना कहीं स्वतंत्र बंदा
परतंत्र नर स्वतंत्र परिन्दा
सजा पाता सदैव दरिन्दा
सुखविंद्र कुदरत का खेल
कब किसकी बना दे रेल
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)