परछाई
यूँ दूर न रह ऐ मिरी परछाई, इधर आ,
दिल को भी सुकूं दे कोई अंगड़ाई, इधर आ।
मिल बाँट कर खाने वाले दिन बीत गए हैं,
अब लूट का है दौर, सनम हरजाई , इधर आ।
ये शहर भी वीरान हुआ तेरे बग़ैर अब,
सहराओं में जैसे कोई रुसवाई, इधर आ।
इस दिल को भी राहत की जरूरत है बहुत,
चाहत की है ये शाम सुहानी, इधर आ।
‘असीमित’ करता है तुझे याद हर घड़ी,
इस दिल की भी सुनले तू सच्चाई, इधर आ।
डॉ मुकेश असीमित