परछाई के घेरे में
एक रात थी
वो भी लौट गई
तस्वीर बनी कैसी है
कहो तो कौन खिंचवाएं
देख ज़रा इसे तू एकबार
किस परछाई के घेरे में
देख ये तो कुछ है
किधर ये न जाने !
लौट, तन्हा नहीं
मशहूर है और कोई
ले निमंत्रण रन्ध्रों से
कोई और है न जाने
कौन किसे कहें ये
लौट-लौट कहूं ये दिवस
चलें चलों और कोई खोई सी
अन्धियारों के आंगन में
अंग-अंग का कौन कहें
ये तो पर्दे में ही अलंकृत है
फिर ये किसे शोभनीय
उच्चार भरी, कद्र भरी ये
मत रोक इसे ले चल
किस ओर वो देख
जिस ओर वो वतन
प्रभातकालीन-सी पवन
रहे उद्गम ये गंग-सी
चंचल भरी कलित-कलित।
– वरुण सिंह गौतम