पप्पू की तपस्या
पप्पू की तपस्या
खाता वह मुर्गा, पीता दारू;
मिली न कोई, उसे मेहरारू;
कर लो बात,करे हाथ आगे;
तन फैले गर्मी तो तप जागे।
जो रहे, मौसम गर्मी व ठंडी;
खाये, अंडा व मांस सतरंगी;
फिर जब तन में,उठता गर्मी;
मन से, तप कहे उसे बेशर्मी।
वह है,जन्मजात मांसाहारी;
व्यवहार उसका व्यभिचारी;
देशी जप,प्यारा विदेशी गप;
कहता पगला, गर्मी ही तप।
जोकर जैसा, करे आचरण;
देश टिका तन, विदेशी मन;
लूट खाए देश का सारा धन,
धन की गर्मी,तप कहे दुर्जन।
करे वो जाति गणना की बात,
पूछो न,कोई भी इसकी जात;
निज हालात, बन गई समस्या,
गर्म जज्बात लगे उसे तपस्या।
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✍️
पंकज कर्ण
कटिहार।