— पनघट —
चल दी गागर को लेकर
मटक मटक कुछ सखियाँ
लेने को जल अपने घर के
आँगन को करने पावन !!
बरसों के बाद पिया
आने लगे हैं जो घर आँगन
मारे ख़ुशी के नहीं रहते
सखी के पग सही डगर पर !!
छेड़ती हैं सखियाँ
सरे राह में कुछ करती चुलबुल
मारती हैं कंकड़ उस के बदन पर
लेने को चटकारे हलल हलल !!
पहुँच के पनघट होने लगी नटखट
खींच के परांदे के वो लट लट
भरने दो पनिया वो आने को हैं
जाने दो न , न सताओ हर पल !!
अजीत कुमार तलवार
मेरठ