*पत्रिका समीक्षा*
पत्रिका समीक्षा
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पत्रिका का नाम: अध्यात्म ज्योति
प्रकाशन वर्ष: अंक एक, वर्ष 58, प्रयागराज, जनवरी से अप्रैल 2024
संपादन कार्यालय:
1) श्रीमती ज्ञान कुमारी अजीत 61, टैगोर टाउन, इलाहाबाद, 211002
फोन 993691 7406
2) डॉक्टर सुषमा श्रीवास्तव
f -9, सी ब्लॉक, तुल्सियानी एनक्लेव 28 लाउदर रोड, इलाहाबाद 21 1002
फोन 94518 43915
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समीक्षक: रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश, 244901
मोबाइल 999761 5451
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राष्ट्रभाषा हिंदी में थियोस्फी की विचारधारा को 58 वर्ष से प्रचारित और प्रसारित करते रहने का महान कार्य अध्यात्म ज्योति कर रही है। इसमें प्रकाशित लेख सदैव ही वैचारिक गंभीरता लिए हुए होते हैं । इस बार भी पत्रिका के अंक में कई ऐसे लेख हैं, जो मनुष्य की चेतना को उदात्त वैचारिकता की ओर प्रेरित करने में सहायक हैं ।
उदयाचल शीर्षक से अपने संपादकीय ‘उदात्त विचारों की ग्रहणशीलता’ शीर्षक से संपादक सुषमा श्रीवास्तव ने ऋग्वेद की एक ऋचा को उद्धृत किया है। जिसका अर्थ है कि कल्याणकारी एवं शुभ विचारों को सभी ओर से प्राप्त करें । इसकी व्याख्या करते हुए संपादकीय में यह बताया गया है कि हमें किसी प्रकार से भी अपनी श्रेष्ठता का भाव नहीं रखना चाहिए। वस्तुत: संपादक के अनुसार सभी उदात्त एवं श्रेष्ठ विचार मनुष्य जाति ने एक दूसरे से ग्रहण किए हैं। हमें सब दिशाओं से अच्छे विचारों को ग्रहण करना चाहिए ।
दूसरा लेख श्री एस.सुंदरम का है। इन्होंने “थियोस्फी के आयाम” विषय पर लिखते हुए यह बताया है कि एक प्रश्नशील मन ही सत्य की गहराई में पहुंच सकता है। महात्मा बुद्ध का उदाहरण देते हुए आपने बताया कि बूढ़े और बीमार लोगों को तो सभी देखते हैं लेकिन जब बुद्ध ने देखा तो उन्होंने विषय की गहराई में जाने का प्रयत्न किया। सत्य को खोजा और इसीलिए वह प्रश्नशील मन होने के कारण संसार के सबसे प्रबुद्ध व्यक्ति बन गए। सुंदरम जी के लेख का अनुवाद सुषमा श्रीवास्तव जी ने किया है।
लेखिका विजय लक्ष्मी का ‘भारतीय सनातन संस्कृति की अवधारणा’ शीर्षक से लेख ध्यान आकृष्ट करता है। आपने बताया कि ‘सनातन’ उसी को कहते हैं जो शाश्वत अनादि एवं चिरंतन है। अर्थात उसके जीवन मूल्य हर देश काल में स्थाई एवं स्थिर हैं ।भारतीय सनातन संस्कृति के उपरोक्त गुणों की पुष्टि के लिए आपने वसुधैव कुटुंबकम, सर्वे भवंतु सुखिनः आदि महाभारत, उपनिषद, ऋग्वेद आदि के वाक्यों को उद्धृत किया है। लेख से भारत की सनातन संस्कृति की सामंजस्य और एकता के भाव की पुष्टि होती है।
प्रमा द्विवेदी का लेख ‘मानवता का दिग्दर्शक अद्वैत मत’ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि आपने ‘एकत्व’ की अनुभूति पर जोर दिया है। जब तक द्वैत भाव है, मानवता का उदय असंभव है। आपका कहना है कि जब द्वैत भाव चला जाता है, तब देश धर्म जाति लिंग इत्यादि से परे एक मानवता भाव की स्थापना हो सकेगी। लेखक को यही अभीष्ट है। विवेक और वैराग्य के पथ पर बढ़ते हुए मोक्ष की कामना का द्वार इस लेख द्वारा पाठकों के लिए खोला गया है ।
गुरु और शिष्य का मिलन वास्तव में एक नियति है, जिसके लिए हमें केवल पात्रता विकसित करनी होती है। जॉफरी हडसन का उपरोक्त लेख ‘गुरु का मिलन’ शीर्षक से लिखा गया है।
‘जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाएं’ शीर्षक से श्री पी.कृष्णा. का लेख भी अच्छा है।
समाचार शीर्षक से पत्रिका के अंत में थियोसोफिकल सोसायटी द्वारा विभिन्न स्थानों पर किए जाने वाले समाजसेवी कार्यों का जहां एक और विवरण दिया गया है, वहीं दूसरी ओर जो बौद्धिक वार्ताएं विभिन्न थियोसोफिकल लॉजों में आयोजित की गई; उनका भी विवरण है।
पत्रिका का मुखप्रष्ठ आकर्षक है। इस पर मुख्यालय, भारतीय शाखा, थियोसोफिकल सोसायटी, वाराणसी का चित्र है। भवन की प्राचीनता नयनाभिराम है। पेड़-पौधों की नैसर्गिक आभा भवन और पत्रिका के कवर- दोनों को आकर्षक बना रखी है। पत्रिका का कवर लेमिनेशन के द्वारा आकर्षक और टिकाऊ है ।भीतर की सामग्री चमकदार अक्षरों से लिखी गई है। प्रूफ रीडिंग अच्छी है। आज के जमाने में पत्रिका निकालना टेढ़ी खीर है। ईश्वर करें कि इस कठिन कार्य को अध्यात्म ज्योति का संपादक मंडल सदैव मूर्त रूप देता रहे।