चेहरे पे चेहरा (ग़ज़ल – विनीत सिंह शायर)
स्वतंत्रता दिवस की पावन बेला
बनी दुलहन अवध नगरी, सियावर राम आए हैं।
दोहा छंद ! सावन बरसा झूम के ,
अपने अपने की जरूरत के हिसाब से अपने अंदर वो बदलाव आदतो और मा
"गप्प मारने" के लिए घर ही काफ़ी हो, तो मीलों दूर क्या जाना...
चलते-फिरते लिखी गई है,ग़ज़ल
इंसान की इंसानियत मर चुकी आज है
सुबह की चाय हम सभी पीते हैं
बहुत जरूरी है एक शीतल छाया
मैं क्या जानूं क्या होता है किसी एक के प्यार में
कौवों को भी वही खिला सकते हैं जिन्होंने जीवित माता-पिता की स
*लक्ष्मी प्रसाद जैन 'शाद' एडवोकेट और उनकी सेवाऍं*
आओ जमीन की बातें कर लें।
रामनाथ साहू 'ननकी' (छ.ग.)
सच्चे हमराह और हमसफ़र दोनों मिलकर ही ज़िंदगी के पहियों को सह