पत्रकार महोदय, कुछ तो शर्म करो !
पत्रकार महोदय, कुछ तो शर्म करो,
जी हजूरी छोड़ो, अपना कर्म करो।
देश समस्याओं से देखो जूझ रहा,
लोगों को कुछ भी नहीं सूझ रहा।
रोजगार शिक्षा और महंगाई ,
समस्या जैसे आसमां छू आई।
हर तरफ देखो, पसरी लाचारी,
त्राहिमाम करती जनता बेचारी।
तुम्हारा तो धर्म था सच दिखाना,
कर्म था वाजिब सवाल उठाना।
जनमानस की तकलीफ बताना,
सच्चाई लोगों तक था पहुंचाना।
तुम तो सत्ता से ऐसे डरने लगे,
सरकार का ही भजन करने लगे।
शान में उनकी कसीदे पढ़ते हो
उनके लिए लड़ते औ झगड़ते हो।
तुम्हे गलत कुछ लगता ही नहीं,
जो नेता जी कह दें, वो ही सही।
कानून कैसे भी बनाए जा रहे,
तुम अभिनंदन गीत गाए जा रहे।
हर फैसले को सही ठहराते हो,
नुकसान को भी नफा बताते हो।
साहिब का गुण गाकर सुनाते हो,
लोगों को तुम तो बस भरमाते हो।
खबर बताते नही, तुम बनाते हो,
फरमान सरकार का सुनाते हो।
प्रचार में ऐसे तुम रम जाते हो,
पार्टी प्रवक्ता खुद बन जाते हो।
सरकार की दलाली में सब भूले,
सत्ता के झूले में तुम तो ऐसे झूले।
नेताओं की जूतियां तक उठाते हो,
जूठन भी उनकी शौक से खाते हो।
तुम्हे तनिक भी लाज ना आई,
अपनी रोज़ी की गरिमा बिसराई।
अब भी समय है, थोड़ा मनन करो,
पत्रकार महोदय, कुछ तो शर्म करो,
जी हजूरी छोड़ो, अपना कर्म करो।