पत्नी की कल्पना
प्त्नी प्रकृति की श्रेष्ठ सुंदर रचना
क्या मैं ही हूँ पत्नी की कल्पना
जिसको सोचा उसने ख्वाबों में
सजाया होगा अपने अरमानों में
रखा होगा व्रत जिसके नाम का
अपने सपनों के राजकुमार का
जब दिल उसका धड़कता होगा
सपना साजन का संवरता होगा
किसी शादी में वो थरकती होगी
साथ किसी को वो तरसती होगी
मुकलाई नार जब देखती होगी
उस रूप में दर्पण देखती होगी
दर्पण में प्रतिबिंब देखती होगी
निज को निहारती शर्माती होगी
लड़की का होता यह सपना जो
पति हो उसके ही पिता जैसा हो
सहज सरल सरस मृदु भाषी हो
स्वभाव लचीला मधुर वाणी हो
जब रूठूँ जाऊँ तो वो मनाता हो
रीझ मन की साकार कराता हो
विचारों का ना संकीर्ण शकी हो
वादे निभाता हो ना वो गप्पी हो
थोड़ा शर्माता जरा शरारती हो
मेरी तरह भावुक जज्बाती हो
उसकी कल्पना यथार्थ हो गई है
क्या कल्पित मूर्त वो मिल गई है
यदि यह सपना यथार्थ हो गया है
मेरा यह जीवन सफल हो गया है
सुखविंद्र सिंह मनसीरत