पत्थर से दिल लगाने चले हैं
पत्थर से दिल लगाने चले हैं
फिर नई चोट खाने चले हैं
इंसान भी वो बन न सका
लोग जिसे मसीहा बनाने चले हैं
कभी लबों से चूमा था जिस को
इमरोज़ वही ख़त जलाने चले हैं
ख़ुदा ख़ैर करे उन के आशियाँ पर
बेकसों का घरौंदा जो गिराने चले हैं
मिरे घर में छाई है तारीकी ‘धरा’
हम औरों का अँधेरा मिटाने चले हैं
त्रिशिका श्रीवास्तव धरा
कानपुर (उत्तर प्रदेश)