पत्थर सा अकड़ क्या जो पीसकर सिमेंट बना दिए जाते हैं
ऐसे उलझी खुद के झमेले में,
खुद को ही ढुंढती रही मेले में,
ऐसी स्वार्थी हम हुए ऐ! मालिक
तुझे याद न कर पाती अकेले में।
मन में नफरतों के अम्बार हैं,
अपनों से हारते हरबार हैं,
बहुत सी बातें हैं चेहरे पे,
पढ़ते जाइए हम अखबार हैं।
पर्वत क्या जाने उतार -चढ़ाव जिन्दगी का,
अंधेरे क्या जाने बेबसी मुफलिसी का,
मरने वालों से कोई पूछ लेता कभी,
जीने वाला क्या जाने दर्द खुदकुशी का।
पत्थर सा क्या अकड़ जो
पीसकर सिमेंट बना दिये जातें हैं
टावर पे होने से क्या
वही जमी पे गिरा दिये जातें हैं
बेशकिमती हिरा-मोती पन्ना,नीलम,
सोना-चांदी न बनिए
सात पहरे सात तालों के भीतर
छुपा दिये जातें हैं।
नूर फातिमा खातून” नूरी”
जिला- कुशीनगर