पत्थर तोड़ती औरत!
धूप में पत्थर तोड़ती औरत को
कभी देखा है
निर्भीक, पसीने से लथ-पथ
चुप चाप अपने काम में लगी
ना किसी से कोई उम्मीद,
ना किसी से कोई बात
ना कोई आस, ना कोई ख़्वाब
डटी आँखें और सूना मन
एक टक बस नज़र पत्थर पर
और फ़िर चोट से तोड़ती पत्थर।
कहाँ उसे चिंता ज़माने की
कहाँ फ़िक्र कल की
कहाँ उसे भय किसी का
बस तल्लीन हो करती
काम जो हैं सामने उसके
पत्थर तोड़ने का
चुप चाप शांति से
पर क्या मन भी शांत
हैं उसका या फ़िर
छलावा तो नहीं कोई ये।
धूप में जलते हुए
फ़िर भी कोई शिकायत नहीं
पेट भरने को रोती नहीं
पानी पी कर काम चलाती
रुक कर थोड़ा सुस्ता लेती
फ़िर दोबारा उसी वेग से
शुरू करती पत्थर तोड़ना
जानती है वो कि
अगर नहीं तोड़ेगी पत्थर
तो कहाँ से खाएगा उसका परिवार
कैसे भरेंगे पेट उसके बच्चों के
और कैसे जीएगा उसका पति बीमार।
असहाय नहीं है वो
कमज़ोर भी नहीं
दुर्बल भी नहीं है
स्वाभिमानी है वो
अभिमान है ख़ुद पर
हो भी क्यूँ नहीं
दृढ़ है वो
पत्थर सी दृढ़
प्रबल है वो
चट्टान सी प्रबल
एक चोट से कैसे तोड़ती
है पूरा पत्थर।