पत्थर और शीशा
मोहब्बत हो गयी शीशे को, एक पाषाण से एक दिन।
मिले थे नैन दोनों के, और हर्षित हुए थे दिल।
कि उनके प्यार की कलियाँ, सभी अब मुस्कुराती हैं।
लुढ़क पाषाण है नाचे, जब शीशा गीत गाती है।
शीशे ने बहुत देखें हैं, पतझड़ फूलों के मौसम।
लगाके झील में डुबकी, सहें हैं आँसूओं का गम।
कि सोचा ये तो सच्चा है, जो न बदले कभी मौसम।
दिखे ऊपर से नीचे तक, रहता कठोर ही हरदम।
और पत्थर एक कोने में, बैठकर मुस्कुराता है।
पा माशूका दर्पण प्रभु का, शुक्रिया जताता है।
मेरी माशूका दर्पण मुझको, हरदम सच दिखाती है।
नहीं झूठी किसी बातों से, कभी हमको रुलाती है।
चमक चिकने बदन की देख, पत्थर फिसल जाता है।
पाने स्पर्श उसके प्यार का, वह निकल जाता है।
चकमक चकमका के शीशा, पत्थर को रिझाती है।
दिलों में मुस्कुराके स्नेह की, बूदें गिराती है।
हुआ ऐसा कि एक दिन दोनों का, दिल मचल ही बैठा।
धरा अम्बर मिले जैसे, क्षितिज का रूप बन बैठा।
कड़े पत्थर की बाहों में, तो शीशा टूट जाती है।
गिरकर पाँव में उसके, वह फिर भी मुस्कुराती है।
किया पत्थर से जब उल्फत,तो कोई दुःख नहीं मुझको।
ज़ख्म फूलों से जो खाया, बता पाऊँ न मैं तुझको।
वो सीने से मेरे लग के, भी अपना रंग बदलते हैं।
यह पत्थर क्या है, इसके सब गुणों को हम समझते हैं।
पुष्प कोमल हैं, गंध सुगंध हैं, और रंग हैं इनमें।
बदलते वक्त संग बदल जाने का ढंग है जिनमें।
किया है इश्क पत्थर से, जो पूजा जाता हर पग में।
क्या यही यकीं है अशोक, इंसा का इंसा पे इस जग में।
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अशोक शर्मा, कुशीनगर, उ.प्र. 6392278218