पत्ते
टहनी से टूट कर पत्ते बड़े गुमान में हैं ।
कह रहे अब हम खुले आसमान में हैं ।
मदमस्त होके उड़ रहे सीमाओं से परे
सोंचते वो व्यर्थ थे अब तक बंधे रहे ।
आज जो स्वच्छन्दता का स्वाद है चखा
उन्नत उड़े गगन में परिदृश्य सुख मना ।
वायु के संग पात वो उड़ता रहा गगन
थमते ही वायु वेग के पाया अध:पतन ।
दूसरों के बल से कब तक टिकोगे यूँ ?
टिके वही बस जो कि स्व नींव पर बढे ।
जिनकी जड़ें जमीन से गहरी जुड़ी रही
वो वृक्ष आंधियों में भी यूँ ही खड़े रहे ।
जिसने जड़े समेट ली खुद की जमीन से
चली जरा हवा भी तो जमीन पर ढहे ।
टहनियों में शेष पत्ते जो तब थे लगे रहे
वो आज भी हरित मधुर रस झूमते रहे ।
और जो पत्ते विलग स्वच्छन्द है हुए
उनके निशान अब कहीं बाकी ही न रहे ।