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2 Jan 2024 · 1 min read

* पत्ते झड़ते जा रहे *

** कुण्डलिया **
~~
पत्ते झड़ते जा रहे, सब वृक्षों के खूब।
और सूखती जा रही, हरी भरी सी दूब।
हरी भरी सी दूब, शीत ने दस्तक दी है।
मुरझाए सब फूल, बहुत यह बेदर्दी है।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, नहीं बनता कुछ कहते।
ऋतु बसंत के पूर्व, रहे हैं पत्ते झड़ते।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मंगलमय हर ओर हो, राजकीय नववर्ष।
लेकिन इसमें है नहीं, भाव कहीं नव हर्ष।
भाव कहीं नव हर्ष, नही यह भारत का है।
भारतीय पंचांग, यहां के जन-मन का है।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, देश का अभ्युदय हो।
लिए स्वदेशी भाव, हर घड़ी मंगलमय हो।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मन सबके भाता बहुत, जलता हुआ अलाव।
राहत कुछ मिलती मगर, घटता नहीं प्रभाव।
घटता नहीं प्रभाव, खुले में कटे ज़िन्दगी।
फुटपाथों पर रात, बीतती नित्य रतजगी।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, सहन करता सब जीवन।
लेकिन क्यों चुपचाप, सदा रहता दुखिया मन।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
सर्दी की इस ठंड से, कैसे पाएं पार।
आपस में मिल बैठकर, करते लोग विचार।
करते लोग विचार, नहीं जब स्थाई घर है।
कैसा अपना भाग्य, भटकना इधर उधर है।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, बात है हमदर्दी की।
सेंकें खूब अलाव, बिताएं ऋतु सर्दी की।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

-सुरेन्द्रपाल वैद्य, मण्डी (हि.प्र.)

1 Like · 1 Comment · 184 Views
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