पति-पत्नी का कहना-सुनना
बड़ा ही दिलचस्प किस्सा है,
कहने और सुनने का,
तू कहती है मुझे सुनने,
मैं कहता हूँ तुझे सुनने..
ऐसे ही दिन गुजरता है,
पूर्णिमा से अमावस होती है,
तारे टिमटिमाते हैं,
धूप, शर्दी और बरसात होती है..
ना तू कभी समझी,
ना मैं कभी समझा,
यही ना समझी ही,
कहने और सुनने में बदलती है..
तू कहती है मुझे सुनने,
मैं कहता हूँ तुझे सुनने..
आधा गोला तेरे सबालों का,
आधा गोला मेरे जबाबों का,
पूरा गोला बनकर कुतर्कों का,
बस उम्रभर यूँहीं चलता रहता है..
यही दुविधा है कहने-सुनने की,
परिणाम घोषित होता नहीं इसका,
क्योकि ना तू कभी जीती,
ना मैं कभी हारा…
कौरव-पाण्डव के जैसा है,
तेरा-मेरा रिश्ता मोहब्बत का,
पड़ौसी कृष्ण परेशान होते हैं,
परिणाम घोषित क्यों नहीं होता,
इस महाभारत का..
तू समझती है खुद को गंगा,
मैं खुद को काशी समझता हूँ,
तू खुद को घर की दासी कहती है,
मैं खुद को घर का गुलाम कहता हूँ..
बड़ी कश्मकश है घर की दीवालों की,
वो हमेशा दिग्भ्रमित रहते है,
कि कौन है दासी, कौन काशी है,
कि कौन है गंगा, कौन गुलाम बाकी है,
मगर एक बात है प्यारे,
मैं खुद मैं होकर भी,
तुझमें रहता हूँ,
तू खुद मैं होकर भी,
मुझमें रहती है,
ढूढंने तेरी आगे की चालों को,
ढूढ़ने मेरे आगे के सवालों को,
मैं तेरी गलतियों को पकड़ता,
तू मेरी गलतियों पर झपटी है,
तू वाशिंग मशीन बनती है,
मैं सर्फ एक्सेल बनता हूँ…
और दोनों ऐसे ही साफ होते रहते हैं,
यही एक लाभ है प्यारे,
इसी कहने और सुनने का…