पतिता
शीर्षक —पतिता
बस स्टाप के कुछ आगे एक छोटी सी टपरी के बाहर खड़ी वह शायद किसी का इंतजार कर रही थी। हो सकता है बस का ही इंतजार हो। उसके हावभाव और भंगिमाओं से यही आभास हो रहा था। टपरी पर खड़े कुछ शोहदे उसके श्रृँगार पर छींटाकसी कर रहे थे तो कुछ अन्य बस मौन हो उसे देखे जा रहे थे। सँभवतः वह युवती इस सब से अनभिज्ञ नहीं थी या आदत हो चुकी थी।
“आप कामना ही हो न?”सहसा आगंतुक के पूछने पर युवती की तंद्रा भंग हुई। उसके चेहरे पर एक पल को घबराहट दिखी जिसे उसने अपरिचित भंगिमा से छिपा लिया।
“सुनिये ..आप कामना तो नहीं है न ..।”
दुबारा उत्सुक आवाज सुन युवती ने गौर से देखा । जेहन में कुछ कौंधा और वह हड़बड़ा कर बारिश में टपरी से बाहर तेजी से निकल गयी।
आगंतुक छतरी सँभाले पीछे दौड़ा और उसे पकड़ ही लिया ।
“तुम कामिनी ही हो ,मेरी कम्मो। कैसे भूल सकता हूँ तुम्हें।”आगंतुक की आवाज भीगी हुई थी
“अब मैं ‘पतिता’ हूँ। उस रात को ऐसी पतित हुई कि पतिता ही बन के रह गयी।” बारिश की बूंदे थी या कपोलों पर बह रहे आँसू आंगतुक एकटक देखता रह गया।
“मतलव …तुम तो ..तुम तो खत में आर्थिक तंगी और अपने सपने पूरे करने की बात लिख के गयी थी न ?”आगंतुक का भर्राया स्वर मानो गले में फँस गया
“तो क्या यह लिख कर जाती कि तुम्हारे पिता ने पतिता बना कर सौदा कर दिया था तुम्हारी कम्मो का ? कैसे बताती कि उस बारिश की रात तुम्हारी अनुपस्थिति में मुझे मात्र खूबसूरत जिस्म समझ कर …..फिर जबरन झूठा खत लिखवा कर अपने अय्याश दोस्त के साथ बदनाम गली पहुँचा दिया गया। ” कामिनी फफक पड़ी थी ।
आगंतुक ने ताबड़तोड़ बारिश में कामिनी को अपने अंक में भर छतरी फैलाते कहा ,”तुम पतिता नहीं हो , पतित हैं वो लोग जो स्त्री को हवस का साधन समझ पतिता बनाते हैं।”
स्वरचित ,मौलिक
मनोरमा जैन पाखी
भिंड ,मध्यप्रदेश