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25 Apr 2020 · 1 min read

पतझड़

भरी दोपहर में मुझ पर अँधेरा छा गया जैसे
मौसम-ए-बहार में ही पतझड़ आ गया जैसे।

ज़िन्दग़ी की शाख़ पर दो पत्ते थे बाकी
एक बे-रहम झोंका शाख़ हिला गया जैसे।

मैं खुदकों बड़ा ताक़तवर मानकर चला था
मेरी कमज़ोरियाँ मुझे वक़्त बता गया जैसे।

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