पतझड़ में पत्ते झड़ते रहे
**पतझड़ में पत्ते झड़ते रहे**
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पतझड़ में पत्ते झड़ते रहे,
हर दिन हर पल मरते रहे।
कोशिश की जो थी व्यर्थ हुई,
अपनों से ही हम हरते रहे।
हालातों के आगे कब झुके,
निज नजरों में ही झुकते रहे।
राहों में रोड़े आए सदा,
गिर-गिर कर आगे बढ़ते रहे।
काबिल शायद जो थे ही नहीं,
पग-पग पर वो ही मिलते रहे।
मुस्कानें दुश्मन धुर से रही,
ख़ामोशी को हम सहते रहे।
हंसी सूरत ख्वाबों में रही,
मिन्नते पाने की करते रहें।
मनसीरत दिल तो रोता रहा,
खुद के हाथों से पिसते रहे।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)