‘पतंग’
‘पतंग’
नाम है गुड्डी,कहलाती ‘पतंग’।
जब भी ये उड़े ,’हवा’करे तंग।
ठंड ‘मौसम’में,सदा खूब दिखे;
बड़े भी झूमते ,’बच्चों के संग।
कटे कभी भी,उसी की पतंग।
जिसमें नहीं रहती है, ‘उमंग’।
जहां कहीं भी होगी , मायूसी;
नहीं रहेगा, तब कुछ भी संग।
‘पतंगें’ उड़ती है,’आकाश’ में।
हमेशा ही दिखे ये,’प्रकाश’में।
‘बच्चे’ सब भी,बहादुर बैठें है;
‘पतंग’लूटने की,अब आस में।
पवन व धागा से, उड़े ‘पतंग’।
उड़ाने वाले , सदा रहे ‘मतंग’।
‘गगन’ में ही , यह गोते खाती;
फिर झट से ही,संभले ‘पतंग’।
‘पतंगबाजों’ की , टोली देखो।
जरा कभी,उनकी बोली देखो।
आसमान ताके, आंखें उनकी;
स्वभाव उनकी, फुर्तीली देखो।
‘आसमान’से यह , बातें करती।
ऊपर ‘दोस्त’ संग , खूब लड़ती।
निज डोरे, इसकी ‘दोस्ती’ तोड़े;
तब दूर कहीं जाकर, ये गिरती।
मकर संक्रान्ति,जब कभी आते।
समस्त नभ में ही, यह छा जाते।
अचंभित ऊपर दिखे,खग सभी;
हर जन तब भी,खुशियां मनाते।
‘पतंगों’ की है , दुनियां ‘निराली’।
कुछ ‘पतंगे’, दिखते ‘पूछ वाली’।
कुछ तो नजर आते, ‘रंग-बिरंगे’;
मिलते हैं,’कागज’व ‘पन्नी’वाली।
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स्वरचित सह मौलिक;
…..✍️ पंकज ‘कर्ण’
…………कटिहार।।