पतंग और मैं
कल देखा कि एक फटी पतंग हवा में बह रही थी .
न ऊपर जा रही थी ,न भू पर आ रही थी ,,,
उसको देख कर कुछ अच्छा नहीं लग रहा था
न जाने मुझे कुछ याद आ रहा था
शायद देश की किस्मत में यही लिखा है
इतने बर्षो से देश मध्य में लटका है
जो चाहता है उसे शौक से उडाता है ,,
या तो मध्य में या काँटों में उलझा जाता है
उसका धागा ,,उसकी मर्जी के आगे ;
विवश है पतंग ,कोई नहीं सुनता
बस मजबूर है मध्य में लटके रहने को
या आंधी तूफान में बबूल में फसने को
अरे पतंग उड़ाने बाले एक बार पीछे मुड कर देखो
एक बार खुद भी उड़ कर देखो
ये जो पतंग काँटों में उलझी है ,
या मध्य में लटकी है ,,कितनी बेबसी है .
उस बिचारी का शरीर छलनी बन गया है
न ऊपर जा सकती है ,न भू पर आ सकती है
उसे देख कर ऐसा लग रहा है ,
जैसे किसी विधवा का त्यौहार मन रहा है ,,,,,( मेरी कविता फटी पतंग से कुछ अंश )
सतीश पाण्डेय