पटरी
पटरी! हां, रेल की पटरी। कभी आड़ी, कभी तिरछी तो कभी सीधी। देश के महानगरों, शहरों और अन्य भू – भागों को जोड़ती हुई नदी-नालों और खेतों से गुजरती हुई लोहे की एक सड़क। ऐसी ही एक रेल की पटरी मंगल उर्फ मंगरू के खेत के पास से गुजरती थी। इन्हीं खेतों में खेलते हुए वह बड़ा हुआ था। रेलगाड़ी को देखकर उसे बड़ी जिज्ञासा होती थी, लेकिन पटरी तक जाने से उसे सख्त मनाही थी। खेत की मेड़ ही उसके लिए सीमा रेखा थी।
जैसे-तैसे मंगरू के जीवन की गाड़ी गांव में चल रही थी। लेकिन जब बाप – दादाओं की जमीन का बंटवारा हुआ तो मंगरू के हिस्से जो आया, उसमें गुजारा मुश्किल हो गया था। परिवार बड़ा था, तीन बच्चे, बूढ़े मां-बाप, स्कूल एवं दवा के अलावा रोज का खर्च, मंगरू के लिए बहुत कठिन हो गया था। उस पर कभी मौसम की मार से फसल बरबाद होने पर भुखमरी की नौबत आ जाती थी।
दोस्तों से बचपन में सुना था कि पटरी बड़े शहरों को जोड़ती है। शहर! हां शहर, जहां कुबेर का खजाना है, चकाचौंध भरी जिंदगी है, रोशनी से भरी शाम है, रफ्तार है और आरामदायक जिंदगी है। वहां हर किसी के लिए कुछ न कुछ काम है, कोई भूखा नहीं मरता। खेत के मचान पर मंगरू यह सोचते – सोचते सो गया। सुबह जब वह उठकर घर पहुंचा तो उसके बीमार पिता दम तोड़ चुके थे। पैसे के अभाव में वह उनका ठीक तरह से इलाज नहीं करा सका था। किसी तरह से मंगरू ने उनका अंतिम संस्कार किया। इस घटना ने मंगरू को बुरी तरह झकझोर दिया था। एक तो पैसे की तंगी और दूसरी तरफ शहर का आकर्षण, आखिर मंगरू ने शहर जाने का निश्चय किया और एक दिन रेल की पटरी का सहारा ले मंगरू शहर पहुंच गया, अपने जीवन की गाड़ी को पटरी पर लाने के लिए।
एक कमरे में आठ – दस लोगों के साथ गुजारा करते हुए एवं दो – दो शिफ्ट में काम करके मंगरू ने जिंदगी के पांच साल गुजार दिये। जो रेल की पटरी उसके खेत के पास से गुजरती थी आज वही उसकी झुग्गी के पास से गुजरती है। जिस पटरी के पास जाना बचपन में उसके लिए प्रतिबंधित था, आज वही पटरी उसकी जीवन रेखा है। उन्हीं पटरियों से गुजरकर वह फैक्ट्री आता-जाता है। आज वह पटरी उसके लिए आस है, परिवार से जुड़ने के लिए एक कड़ी है। परिवार से मिलने के लिए साल में एक बार वह गांव जरूर जाता। इसी बीच उसकी बूढ़ी मां बीमार पड़ी। मंगरू ने इस बार उनके इलाज में कोई कमी नहीं होने दी, लेकिन वह उन्हें बचा नहीं सका। बुढ़ापे ने उसकी मां की जान ले ली। कुछ दिन बाद मंगरू फिर शहर लौट कर काम में लग गया।
जीवन के हालात कुछ सुधरे तो मंगरू अपने परिवार को शहर ले आया। हर कोई अपने – अपने तरीके से घर खर्च में हाथ बंटा रहा था। पत्नी लोगों के घर काम करती, बच्चे स्कूल के बाद रेहड़ी लगाते और वह खुद भी तो कड़ी मेहनत कर रहा था। धीरे-धीरे मंगरू के जीवन में अच्छे दिन लौट रहे थे, मगर भाग्य को यह स्वीकार नहीं था। अचानक एक महामारी पूरी दुनिया पर कहर बन कर टूट पड़ी। कारोबार ठप, फैक्ट्रियां बंद, यातायात बंद। ऐसे में मंगरू जैसे लोगों का बुरा हाल था। जब तक घर में अनाज था तब तक तो ठीक, पर बाद में खाने को लाले पड़ने लगे। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं एवं सरकार ने भोजन सामग्री बाँटने का काम किया, लेकिन आखिर कब तक ऐसे चलता। जब लगा कि यह लड़ाई लम्बी चलने वाली है, तो धीरे-धीरे सबने हाथ खींच लिए।
नौकरियां तो पहले ही छूट चुकी थीं। फलस्वरूप बड़ी संख्या में मजदूरों का शहरों से गांवों की तरफ पलायन होने लगा। मंगरू ने भी कुछ दिन इंतजार किया , लेकिन जब जमा-पूंजी खत्म होेने लगी तो उसने भी अन्य मजदूरों की तरह अपने गांव लौटने का फैसला किया। रास्ते के लिए रोटी बांध कर कुछ सामानों को गठरी और बोरे में भर कर वह भी अपने परिवार के साथ फिर उसी पटरी का सहारा लेकर पैदल ही गांव की तरफ जा रहे मजदूरों के एक जत्थे के साथ चल पड़ा। यात्रा लम्बी थी, लेकिन पटरी का सहारा था, इसलिए आस बंधी थी। छोटे बच्चों को पटरी पर चलने में सबसे ज्यादा आनंद आ रहा था। दिन भर धूप में चलने के बाद रोटी खा कर सुस्ताने के लिए उसका परिवार और कुछ अन्य मजदूर पटरी पर ही बैठ गये। कब सबकी आंख लग गयी, पता ही नहीं चला। जिस पटरी पर पूरे दिन कोई रेलगाड़ी नहीं आयी उस पर रात में कब रेलगाड़ी गुजरी , पता ही नहीं चला। लोगों में चीख पुकार मच गई। अगले दिन खबर की सुर्खियां थी— घर वापसी कर रहे प्रवासी मजदूरों की रेल रेलगाड़ी से कटकर मृत्यु, मरने वालों में स्त्रियां और बच्चे भी शामिल। सरकार द्वारा मुआवजे का ऐलान।
इस प्रकार न जाने कीतने मंगरुओं के जीवन की गाड़ी पटरी पर आने से पहले ही पटरी से उतर गई।