पगडँडी और सड़क
जीवन को नापती, ये पतली गलियाँ
अब चौड़ी और मगरूर हो गई है,
गाँव की वो पगडँडी,
जो अकसर घर पर आकर,
रूक जाया करती थी,
आज शहर की सड़क में कहीं खो गयी है
दूर गली के नुक्कड़ से,
बाबूजी के सायकल की घंटी
कार के चीख़ते हॉर्न में तब्दील हो गयी है
मिट्टी की सौंधी ख़ुशबु में
गरजते धुंऐ की मिलावट है
प्रगति है… आइना है,
शायद प्रगति का आइना
वक़्त करवट बदल रहा है।