*पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र और आर्य समाज-सनातन धर्म का विवाद*
पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र और आर्य समाज-सनातन धर्म का विवाद
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पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र मुरादाबाद में जन्मे तथा मोहल्ला दिनदारपुरा के रहने वाले विद्वान व्यक्ति थे । संयोगवश आपका जीवन-वृत्त लगभग उसी दौर में सक्रिय हुआ ,जब आर्य समाज और सनातन धर्म के शास्त्रार्थ चरमोत्कर्ष पर थे।
1875 ईस्वी में स्वामी दयानंद सरस्वती आर्य समाज की स्थापना करके समूचे भारत में विशुद्ध वैदिक मूल्यों की पताका फहराने के लिए समर्पित हो चुके थे । वहीं दूसरी ओर मूर्ति-पूजा में विश्वास रखने वाला सनातन धर्म अपनी परंपरा से तिल-भर हटने वाला नहीं था । ऐसे माहौल में आषाढ़ कृष्ण द्वितीया विक्रम संवत 1919 अर्थात ईसवी सन् 1862 में पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र का जन्म हुआ । आपकी मृत्यु 1916 ईसवी में हुई ।
इस तरह पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र जी ने आर्य समाज के उदय और उसके विस्तार के दौर को देखा और महसूस किया । ज्वाला प्रसाद जी सनातन धर्म के भक्त थे। आर्य समाज की बातें उनके गले नहीं उतर पाती थीं। कक्षा सात में जब वह पढ़ते थे तभी विद्यालय के एक आर्य-समाजी शिक्षक से उनका विवाद होता रहता था जो इतना बढ़ गया कि ज्वाला प्रसाद जी को विद्यालय छोड़ना पड़ा । फिर घर पर ही उन्होंने संस्कृत पढ़ी और अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण संस्कृत के प्रकांड विद्वानों में उनकी गिनती होने लगी ।
वैसे तो पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र जी ने हिंदी साहित्य को मौलिक और अनुवादित अनेक ग्रंथ प्रदान किए हैं ,लेकिन “दयानंद तिमिर भास्कर” के लिए उनका नाम इतिहास के पृष्ठों पर हमेशा अंकित रहेगा ।
हुआ यह कि 1875 में जब महर्षि दयानंद सरस्वती ने “आर्य समाज” की स्थापना की और वेदों के आधार पर एक विशुद्ध पुरातन मूल्यों वाले समाज के पुनर्गठन ंकी रूपरेखा प्रस्तुत की तो यह वैदिक विचार बहुतों को रास नहीं आया । पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र उनमें से एक थे। आप ने न केवल मुरादाबाद में “सनातन धर्म सभा” की स्थापना की बल्कि “सत्यार्थ प्रकाश” के साथ शास्त्रार्थ की दृष्टि से एक पुस्तक की रचना की जिसका नाम “दयानंद तिमिर भास्कर” था । यह अपने आप में बहुत बड़े साहस और विद्वत्ता की बात थी। 425 प्रष्ठ की इस पुस्तक का पहला संस्करण 1890 ईस्वी में प्रकाशित हुआ । चौथा संस्करण ईस्वी सन् 1913 में प्रकाशित हुआ।
मुंबई से प्रकाशित इस पुस्तक में पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र ने अपनी ओर से भरसक प्रयत्न करके इस तर्क की स्थापना करने का प्रयास किया कि सत्यार्थ प्रकाश द्वारा प्रतिपादित विचारों में कतिपय चूक हैं । इसके लिए जब हम पुस्तक की “विषय-सूची” को पढ़ते हैं तो उससे पता चलता है कि पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र आखिर कहना क्या चाहते थे ?
उसमें लिखा हुआ है कि स्वामी दयानंद स्त्रियों को गायत्री मंत्र प्रदान करने के पक्षधर थे तथा शूद्र और स्त्रियों को वेद पढ़ने के अधिकारी मानते थे । जबकि पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र ने इससे हटकर अपने तर्क प्रस्तुत किए थे ।
एक ओर स्वामी जी ने कर्म से ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र माने थे। उसके स्थान पर जन्म से जाति को सिद्ध करना पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र को अभीष्ट था।
विषय-सूची में एक अन्य स्थान पर लिखा हुआ है कि दयानंद जी लिखते हैं कि ईश्वर के नाम लेने से पाप दूर नहीं होता। उसका खंडन कर ईश्वर के नाम लेने से पाप दूर होना वेद मंत्रों से प्रतिपादित किया गया है ।
एक अन्य स्थान पर विषय-सूची बताती है कि स्वामी दयानंद ने शूद्र के हाथ का भोजन करना लिखा है जबकि पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र ने निज पत्नी या उच्च वर्ण के हाथ का भोजन करना सिद्ध किया है ।
उपरोक्त विषय-सूची को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म-ग्रंथों से प्रमाण प्रस्तुत करने के मामले में सफलता चाहे कोई भी अपने नाम दर्ज करा ले ,लेकिन प्रगतिशील विचारों की दृष्टि से तो स्वामी दयानंद सरस्वती और उनकी व्याख्या ही प्रभावी हो सकती थी । यही हुआ भी । जन्म के आधार पर जातिगत-भेदभाव आर्य-समाज के उदय के बाद निरंतर क्षीण होते चले गए और पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र तथा उनकी पुस्तक “दयानंद तिमिर भास्कर” केवल इतिहास का प्रष्ठ बन कर रह गई ।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर (उ. प्र.)
मोबाइल 99976 15451
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(नोट : उपरोक्त लेख में तथ्यों के लिए मदद डॉ. मनोज रस्तोगी द्वारा साहित्यिक मुरादाबाद व्हाट्सएप समूह में प्रस्तुत की गई परिचर्चा से ली गई है । )