पंछी वत ही डोली,,,
28.07.16
समय के साथ चलते चलते जब थकी,
तो पनाहों में समय के ही वो हो ली,,,
बहती रही निरंतर बहती ही रही वो,
हवा और रुत जिधर की भी हो ली,,,
टकराना चट्टान से,बदलाव था बड़ा,
सम्हली फिर जो,तो कभी न डोली,,,
समय से तेज दौड़ते इक,गति के
अश्व पर ही सवार अब वो हो ली,,,
यादों के झुरमुट से अब जो थी निकली,
गगनचुम्बी उन्मुक्त पंछी वत ही डोली,,,
****शुचि(भवि)****