“पंचतत्व में मिल जाना हैं”
पंचतत्वों से बना शरीर,
पंचतत्वों में ही मिल जाना हैं,
छोड़ झूठे अहम को बन्दे,
कुछ हाथ नहीं आना हैं,
झूठी काया, झूठी माया,
सब यहीं रह जाना हैं,
पंचतत्वों से बना शरीर,
पंचतत्वों में ही मिल जाना हैं,
डोर हाथ विधाता के,
वोही नाच नचा रहा,
डोर खींच के इक पल में,
तेरी औकात दिखा रहा,
पत्ता भी नहीं हिले,
उसकी इच्छा के बिना,
पल – पल हमें बता रहा,
फिर अपनी करनी पे,
तू क्यूँ इतना इतरा रहा,
अपने को करता मान,
हर क्षण धोखा खा रहा,
क्षण – भंगुर हैं यह सब,
क्षण में काफूर हो जायेगा,
राख बनेगी, ख़ाक उड़ेगी,
पंचतत्वों से बना शरीर,
पंचतत्वों में ही मिल जायेगा,
चादर मैली ओढ़ के,
कैसे उस दर जायेगा,
अपने कर्मों को सुधार बन्दे,
अंत समय पछतायेगा,
काल का जब संदेशा आयेगा,
कोई न साथ निभायेगा,
पंचतत्वों से बना शरीर,
पंचतत्वों में ही मिल जायेगा,
आत्मा तो नश्वर है,
पल – पल चोला बदलें,
लख – चौरासी भोग के,
मानुष तन मिलें,
हाड़ – मास का पुतला,
आये न कोई काम रे,
सत्कर्म तू कर ले बन्दे,
भज ले हरि के नाम को,
माटी की देहिया, माटी में मिल जाये,
आग जला दे, पानी गला दे,
“शकुन” ऐसी तेरी काया रे,
सांस तन से जब निकलेगा,
पंचतत्वों में मिल जाना रे।।