न जाने क्यों अक्सर चमकीले रैपर्स सी हुआ करती है ज़िन्दगी, मोइ
न जाने क्यों अक्सर चमकीले रैपर्स सी हुआ करती है ज़िन्दगी, मोइश्चराइज्ड मेकओवर की ग्लॉसी परतों के नीचे बेरुखी की सख्त दरारों को छुपाए.. अपनों के ही बीच अपनों से ही अजनबी बन पूरा जीवन गुज़र जाता है लेकिन सामाजिक कमिटमेंट्स कभी आत्मा के तलों तक नहीं उतरते..
ऐसे में पाषाण हो चुके निःस्पंद हृदय में भावों का कोई स्पंदन स्वप्न बन पलकों पर पल भर ठहरने की गुस्ताखी करने लगे तो नर्म एहसासों की पहली दस्तक पर ही उन्हें तिलांजलि देना जानता है आत्म-श्रेयस मन..
भावों की आलोड़ित निःशब्द अन्तः चीत्कारें बिना किसी चीख के दफ़न हो जाती हैं हृदय में कहीं गहरे.. पलकों की कोर पर उमड़ आए प्रेमाश्रु विवश हँसी का आवरण ओढ़ फिर चल पड़ते हैं अपने कंटक पथ पर पग साधते दर्द के एक अंतहीन सफ़र के लिए..!