नज़्म
‘जा रहा हूँ, फिर न लौटूँगा मैं तेरी दुनिया में कभी’
हर बरस लौटे हो मुझे बस ये ही तो बताने तुम
कहते थे के गिरा दोगे मेरे दर्द ओ ग़म की दीवार
अब समझी हूँ कि आये थे बस मुझी को गिराने तुम
तेरी आँखों में ढूँढा था जो, वो चेहरा आईने में मिला
उस चेहरे में छुपे विश्वास का धागा है मेरे साथ
ऐसा भी नहीं है कि तन्हा ही रोयी हूँ मैं हर दम
एक ख़्वाब था अभागा जो रोज़ जागा है मेरे साथ
ये न सोच कि ये रतजगे तेरी यादों के रतजगे हैं
इन रतजगों में तो अब बस ख़ुद को जगाया है मैंने
तुझे गर अब भी सुनती हैं सदाएँ तो अनसुना कर
क्यूँकि हर इक सदा में अब ख़ुद को ही बुलाया है मैंने
जिन राहों में बिछ जाती थी तेरी ख़ातिर ये पलकें
उन राहों में जाने से क़दम अब डगमगाने लगे हैं
तेरे दिखने से खिलते थे कभी फूल पस ए मंज़र में
अब तेरे साये से मेरे ख़्वाब भी घबराने लगे हैं
वक़्त वो भी था जब तेरी जुस्तजू जीने की आस थी
पर ये न सोच कि तुझमें कोई बात थी जो ख़ास थी
वो मेरा इश्क़ था जो अमृत सा बहा था दरमियाँ
तू तो समंदर ही था तब भी तुझमें कहाँ मिठास थी
तेरा नाम जो पुकारना भी गुनाह सा लगता है अब
हर सहर में, हर पहर में,इबादत सा पढ़ा है इसको
तेरी सूरत जो छलना है, धोखा है, भरम है कोई
अपने हाथों में लेकर देव मूरत सा गढ़ा है इसको
तेरी नज़रें किसी और चेहरे पे टिकी हैं तो क्या
मेरे आगे भी देख हसीन से मंज़र तमाम हैं
ये भी नहीं कि तेरे बिना मेरी दुनिया उजड़ गयी
मजाज़ी इश्क़ के आगे भी प्यारे दिल के मक़ाम हैं
सुरेखा कादियान ‘सृजना’