नज़्म
बह्र -122 122 122 122
यहां आदमी अब खुदा हो रहा है |
जमाना कहां था कहा हो रहा है |
अजब हो गये आज हालात सारे –
यहां शक्स हर बावला हो रहा |
चुभोने को नश्तर झिझकता नहीं है –
जो अच्छा था वो ही बुरा हो रहा है |
हुनर आ गया नफरतें पालने का –
मोहब्बत भरा दिल जुदा हो रहा है |
वही सूर्य है चाँद तारे वही हैं –
मगर क्यों अंधेरा घना हो रहा है |
वो बचपन वो अल्लढ़ जवानी के लम्हे –
खतम प्यार का सिलसिला हो रहा है |
जो अपने थे उनको समझ बैठे दुश्मन –
खबर थी न कुछ भी दगा हो रहा है |
चमक खो रही चाँद तारों की जग में –
अजब धुंध छायी धुआं हो रहा है |
वो रिश्तों की शीतल नमीं खो गयी है –
दिलों में कहीं फांसला हो रहा है |
मंजूषा श्रीवास्तव