नज़्म/जात-मज़हब के अँधेरे
उड़ते परिन्दे को उड़ाते हैं सब
सभी गिरते परिन्दे को उड़ायें
तो अच्छा भी लगे
मैंने सुना है बुजुर्गों से अपने
पहले पानी लेकर दौड़ पड़ते थे लोग
अब ग़ैर घरों में आग लगाते हैं सब
जलते हुए घरों की आग बुझायें
तो अच्छा भी लगे…………………………..
अब तालीम भी है
चीज़ों का इल्म भी ख़ूब
सब मीठी मीठी बातों में बतियाये
तो अच्छा भी लगे
मैंने देखा है कचरे से सनी गलियों को
सुना है शोर ख़ुदा को बदनाम करते हुए
जबकि ख़ुदा बहरा नहीं ,अँधा भी नहीं
ख़ुदा के बन्दे ग़र बैंड-बाजा धीमे बजाये
तो अच्छा भी लगे…………………………..
ग़नीमत है कि आज आज़ाद हैं
आज़ाद है हर आशियां
अब हर शहर आज़ाद है
इस आज़ादी को शिखर तक ले जायें
तो अच्छा भी लगे
जानें क्यूं लोग यहाँ बात बात पर लड़ते हैं
जात-पात पर लड़ते हैं
रखतें हैं इतना फांसला
अपने सीने में बारूद लिए फ़िरते हैं
मेरे अजीज़ सब सीनों में चमन के फूल खिलाये
तो अच्छा भी लगे………………………………….
छोटे-बड़े मोटे-नाटे काले-गोरे
सब के सब इंसां ही तो हैं
सब इक़ दुज़े के घर खायें
तो अच्छा भी लगे
कुछ लोग पहुँच गए हैं चाँद पर
यहाँ ज़ुबा जाति-मज़हब पर अटकी हैं
इसी अँधेरे को देखकर
हाय ! इसी तेरे मेरे को देखकर
कुछ पँछी इस घर से कूच कर गए
उन पंछियों को कोई वापस घर ले आये
तो अच्छा भी लगे……………………..
~~~अजय “अग्यार