नज़्म/कला में ज़हर हो बे शक़ मग़र ज़हर को काटने के लिए
कला में ज़हर हो बे शक़
मग़र ज़हर को काटने के लिए
ना हो ज़हर ये ग़वारा
इंसानों को बाँटने के लिए
ना हो जात-बिरादरी इसमें कोई
ना हो मज़हब कोई
ना हो हुकूमती रंज कोई
अरमानों को पाटने के लिए
कला में ज़हर हो बे शक़
मग़र ज़हर को काटने के लिए…….
कला में आग भी हो
आँच भी हो चाहें लपट भी हो
हो कड़वाहटें भी बे शक़
कला राह दिखाती है
कला जीना सिखाती है
ना हो कभी अँधेरा इसमें
बस हो उजाला दूधिया सा
तिमिर को छाँटने के लिए
कला में ज़हर हो बे शक़
मग़र ज़हर को काटने के लिए……..
ये कौन हैं मुहब्बत के दुश्मन
ये कौन हैं इंसानियत के दुश्मन
कौन हैं ये इंसानों के भेष में
ज़ुबानों के दुश्मन?
जो हिन्दी बचाओ चिल्ला रहें
उर्दू का गला घोंटने की फ़िराक में
ये कौन हैं जो उर्दू बचाओ चिल्ला रहें
हिन्दी का गला घोंटने की फ़िराक में
ये हिन्दी वाले देखों
उर्दू आठों पहर बोलते हैं
और ये उर्दू वाले भी तो हिन्दी
और हिन्दी उर्दू ही क्यूं
अंग्रेज़ी को भी ख़ूब आजमाते हैं
रोज़मर्रा में सुनों ज़रा इनको कभी
ये आदत इनकी जा सकती है क्या
फ़िर ये किस बात पर फुसफुसा रहें
कहीं अपने गुनाह तो नहीं छिपा रहें
हिन्दी-उर्दू को बाँटने के लिए
पर्दानशीं होकर
मज़हबी चोला ओढ़कर
इंसानों को बाँटने के लिए
ज़ुबानों को बाँटने के लिए
देखों कला में ज़हर हो बे शक़
मग़र ज़हर को काटने के लिए……
~~अजय “अग्यार