एक इल्जाम ऐसा भी….. !!
बात करते -करते जज़्बात नज़र आये,
सवाल करते -करते ख़यालात नज़र आये,
कैसे खो गया गुमनामी के नगर मे आज मैं,
आघात करते-करते, ग़म मे पात नजर आये.. !
एक दिल्लगी थी यारों, जिसके हाथ नजर आये,
कुछ बदसुलूक बातो के भी दांत नजर आये,
यूँ ही शौक से भुला जाते, सारे रंजो ग़म,
करते भी क्या ज़ब अपने ही खिलाफ नजर आये.. !!
पूछा ज़मीर से तो कुछ एहसान नजर आये,
आईने मे देखा खुद को शर्मसार नजर आये,
सदियों से संभाले रखा था हमने ग़ुरूर-ऐ -दिल,
उस पर भी आज मुझको रुखसात नजर आये..!!
वो भी तोड़ा गया, जमाना ज़ब हो गया क़ातिल,
इस ग़म के फ़साने मे हम बहा गए साहिल,
अब तक ज़माने मे काबिल -ऐ -दोस्त नज़र न आये,
इस तंग जिंदगी मे सिर्फ.. विकार नजर आये.. !
किस पर लगाए इल्जाम ज़ब जुल्म नजर आये,
खुद ही अपनी जिंदगी के आकार नजर आये,
एक लफ्ज़ मे रुला दे, ऐसे व्यवहार नजर आये,
उम्मीद भी नहीं थी ऐसे ख़यालात नजर आये,
भरी जवानी मे अपनों से शर्मसार नजर आये,
हाँ… खुद को बदल देंगे, अब ऐसे हालात नजर आये.!!